SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ पूर्वरूपे दोषाभावेऽपीन्द्रियप्रवर्त्तनं युक्तम् धूमदर्शनोत्तरकालं स्मृत्युपस्थापिते पावकेऽपि दोषाभावदिन्द्रियप्रवृत्तिप्रसक्तेः। शक्यं ह्यत्रापि वक्तुम् ( ) न चापि लिंगतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनम्। वार्यते केनचिन्नापि तदिदानी प्रदुष्यति ।। अथ प्रत्यक्षप्रतिभाताद् धूमात् स्पष्टावभासाद् व्यतिरिक्ता स्मृतिप्रभवाऽनुमितिर्भिन्नाकाराग्निमुल्लिखतीति 5 न तत्र दृगवतारः। तर्हि विशददृगवसेयात् रूपादस्पष्टतया पूर्वरूपमुल्लिखन्ती स्मृत्युपजनिता प्रतिपत्तिर्न दृगुपदर्शितं रूपमवतरतीत्यभ्युपेयम्। ततः स्मृतेः पूर्वमुत्तरकालं वा पौर्वापर्यविविक्तं वर्तमानकालमर्थं दृगवतरतीति नैकत्वग्राहिणी। ततो विकल्पविकलाध्यक्षमतिः सिद्धा, एकत्वप्रतिपत्तिस्तु स्मृतिकृतोदया पृथगेव पूर्वापरविविक्तरूपावभासिस्पष्टदृशः । अथ पौर्वापर्ये दृशोऽप्रवृत्तेर्न तद्ग्रहात् सविकल्पाध्यक्षमति: जाति-गुण-क्रियादीनां तु दर्शनविषयत्वात् 10 तद्विशिष्टार्थप्रतिपत्तिः सविकल्पिका भविष्यति। न, जात्यादेः स्वरूपानवभासनात् । न हि व्यक्तिद्वयव्यति रिक्तवपुर्णाह्याकारतां बहिर्बिभ्राणा विशददर्शने जातिराभातीति न तद्योजनादध्यक्षमतिः सविकल्पिका। न चाम्रबकुलादिषु 'तरुस्तरुः' इत्युल्लिखन्ती बुद्धिराभातीति नाऽसती जातिः, विकल्पोल्लिख्यमानतयापि फिर भी स्मृतिनिवेदित पूर्वरूप के ग्रहण में इन्द्रियप्रवृत्ति शक्य नहीं है। अन्यथा, धूमदर्शन के बाद स्मृतिनिवेदित अग्नि के ग्रहण में इन्द्रिय की प्रवृत्ति, कोई क्षति न होने से प्रसक्त होगी। अब तो 15 हम भी कह सकते हैं – “लिंग (दर्शन) के बाद (अग्नि के ग्रहण में) इन्द्रिय प्रवृत्ति को कौन रोकता है ? इन्द्रिय भी वर्तमान में दोषविहीन है।” – ऐसा हम कहेंगे तो आप को मान लेना पडेगा। यदि कहें – 'धूम ही प्रत्यक्ष में भासित होता है न कि अनुमेय अग्नि, क्योंकि धूम का स्पष्टाभास होता है। व्याप्तिस्मृति के माध्यम से जो अग्नि की अनुमिति होती है वह भिन्नाकार यानी अस्पष्टाकार होती है जो कि स्पष्टावभास से अतिरिक्त ही है। अत एव उस के ग्रहण में दर्शन की प्रवृत्ति नहीं 20 होती।' - तो फिर यह भी मानना होगा कि निर्मलदर्शनगोचर (वर्तमानरूप) स्पष्टाकार से विभिन्न यानी अस्पष्टाकारवाले पूर्वरूप का उल्लेख करनेवाली स्मृतिप्रयोजित बुद्धि भी स्पष्टदर्शनगोचर रूप का भासन नहीं करती है। निर्मल दर्शन तो स्मृति के पूर्व या उत्तरकाल में पूर्वापरभावविकल सिर्फ वर्तमानकालीन अर्थ को ही विषय करता है, अत एव वह पूर्व-अपर भावों के एकत्व को भासित नहीं कर सकता। सारांश, यह सिद्ध हुआ कि प्रत्यक्षबुद्धि एकत्वादिविकल्प से अछूती होती है। बाद 25 में स्मृति के प्रभाव से एकत्वमति का उदय होता है और वह पूर्वापरस्पर्शशून्य शुद्ध रूप अवभासक स्पष्ट दर्शन से पृथग् ही होती है। [ प्रत्यक्ष से जात्यादिविशिष्ट अर्थ का ग्रहण असम्भव ] यदि कहा जाय – 'पूर्वापर भाव के ग्रहण में दर्शन की पहुँच न होने से, उस को ग्रहण कर के वह सविकल्पात्मक प्रत्यक्ष बुद्धि का स्थान ग्रहण करे यह अशक्य है। फिर भी जाति, गुण और 30 क्रियादि तो दर्शन के विषय ही हैं, इस लिये 'जात्यादिविशिष्ट अर्थ को ग्रहण करने से प्रत्यक्षबुद्धि सविकल्पात्मक क्यों नहीं हो सकती ?' - यह प्रश्न इसलिये अनुचित है कि जाति आदि का स्वरूप ही अनिश्चित है। निर्मल दर्शन में बाह्यार्थ के रूप में दो गाय आदि व्यक्ति से पृथपिण्डात्मक ग्राह्याकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy