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खण्ड-४, गाथा-१ भाविरूपता चानुमानावसेया। तेन (श्लो॰वा प्रत्यक्ष०श्लो०२३५-२३६ उत्त०। पूर्वा०)
न च स्मरणतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनम् ।। वार्यते केनचिन्नापि तदिदानी प्रदुष्यति । इति निरस्तम् । यतो यदि स्मरणादूर्ध्वं वर्तमानरूपे इन्द्रियस्य प्रवर्त्तनमभिप्रेतं तथा सति वर्तमानमात्रपरिच्छेदाद् न स्मरणोपढौकितैकत्वग्रहः। ___अथ पूर्वरूपे तत्रापि यथा प्राक् स्मृतेर्दर्शनं पूर्वरूपतायामविषयत्वाद् न प्रवर्त्तते तथा तदुत्तरकालमपि, 5 अविषयत्वाऽविशेषात् । 'तदा प्रवर्त्तने चक्षुषो न दोषः' [ ] इत्यत्रापि यद्यसंनिहिते स्मरणोपढौकिते नयनं प्रवर्तते तीविद्यमानविषयत्वात् तदालम्बनं ज्ञानं निर्विषयं भवेदिति कथं न दोषः ? तिमिरोपहतदृशोऽप्यसत्यदर्शनमेव दोष: तच्चात्रापि समानमिति कथं न दोषः ? अथ वर्त्तमाने स्मृत्युत्तरकालं तत् प्रवर्त्तमानमदुष्टं तर्हि नैकत्वप्रतीतिः। न च यदेव वर्तमानं तदेव पूर्वमिति भेदाऽभावात् तत्त्वग्रहः, अभेदस्याऽसिद्धेःन हि दृश्यमान-स्मर्यमाणयोरभेदसिद्धिः, दृश्यमाने स्मृतेः स्मर्यमाणे च दृशोऽनवतारात् । न च स्मरणोपनीते 10 में भासित होते हैं। यदि इन विपदाओं से बचना है तो मानना पडेगा कि पूर्वरूपता एवं भाविरूपता प्रत्यक्षगोचर नहीं है, पूर्वरूपता सिर्फ स्मृति का विषय है जब कि दर्शनगोचरअर्थ की भाविरूपता अनुमानगोचर है। यही सबब है कि श्लोकवार्तिक का यह कथन भी निरस्त हो जाता है जिस में कहा है कि “स्मृति के पश्चात् उसी विषय में प्रवृत्ति करते हुए इन्द्रिय को कौन रोक सकता है ? वर्तमान में वह इन्द्रिय दूषित भी नहीं है।" - स्मृति के पश्चात् यदि वर्तमान अर्थ के ग्रहण में 15 इन्द्रिय प्रवृत्त होगी यह मान लिया जाय तो भी उस से मात्र वर्त्तमानरूपता का ही बोध हो सकेगा, पूर्वरूपता का नहीं, अत एव स्मृतिनिवेदित पूर्वरूपता के साथ वर्त्तमानरूपता का एकत्व दर्शनगोचर नहीं हो सकता।
- [उत्तरकाल में पूर्वरूपता का चाक्षुषग्रहण असम्भव ] ___ यह ठीक ही है कि - स्मृति के पहले, अपना विषय न होने के कारण दर्शन पूर्वरूपता के 20 ग्रहण में नहीं प्रवृत्त होता, ऐसे ही उत्तरकाल में भी पूर्वरूपता के ग्रहण में नहीं प्रवृत्त होगा, क्योंकि तब भी वह अविषय होने में कोई फर्क नहीं है। अत एव यह कहना कि “उत्तरकाल में पूर्वरूपता के ग्रहण में चक्षु की प्रवृत्ति होने में कोई दोष नहीं है" ( ) वहाँ सोचना पडेगा कि यदि नयन असंनिकृष्ट स्मृतिनिवेदित अर्थ के ग्रहण में चेष्टा करेगा तो तद्विषयक ज्ञान असद्विषयक हो जाने से निर्विषयक बन जाने का दोष क्यों नहीं होगा ? तिमिररोग से उपहत नेत्र का भी 'असद्विषय को 25 देखना' यही तो दोष है, प्रस्तुत में भी यहाँ 'असद् विषय को देखना' यह दोष क्यों नहीं ?
यदि कहें कि - ‘स्मृति के बाद उसी अर्थ में दर्शन की प्रवृत्ति होने में दोष नहीं है' - तो भी एकत्वप्रतीति नहीं हो सकेगी। यदि कहें कि – 'जो अभी वर्तमान है वही पहले पूर्वतन था, पूर्वतन और अद्यतन में भेद नहीं है। अतः पूर्वोत्तर में एकत्व का ग्रह हो जायेगा' – नहीं, भेदाभाव ही अप्रसिद्ध है फिर एकत्व ग्रह कैसे होगा ? वर्तमान में दृश्यमान और स्मृतिविषय भूतकालीन पदार्थ 33 इन दोनों का अभेद असिद्ध है। कारण, दृश्यमान पदार्थ में स्मृति की पहुँच नहीं, स्मृति के विषय में (असंनिकृष्ट होने से) दर्शन की पहुँच नहीं है। मान लो कि चक्षुइन्द्रिय में कोई क्षति नहीं है,
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