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________________ १४० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तु कथं भाविरूपपरिगतो भावोऽवभातो भवेत् ? यदेव तत्र वर्तमान रूपमाभाति तदेवाध्यक्षमस्तु न भावि, यदि तु तदपि तदाध्यक्षं तदाद्याध्यक्ष एव मृत्युपाधेः सकलविषयस्य प्रतिभातस्यास्तमयात् तद्विषया तदुत्तरकालभाविनी सर्वा मतिर्निर्विषया भवेत्। किञ्च, भावि-भूतयोरध्यक्षविषयत्वे भिन्नमपि तदध्यक्षविषयं भवेदिति सर्वस्त्रिकालदर्शी भवेदिति 5 “भविष्यंश्चैषोऽर्थो न ज्ञानकालेऽस्तीति न प्रतिभाति” ( ) इति निराकृतं दृष्टव्यम्, भावि-भूतकालतावद् भविष्यतो धर्मादेर्दर्शनकालेऽसतोऽपि प्रतिभासनात्। न चाऽभिन्नयो विभूतरूपयोः प्रतिभासेऽपि भाविधर्मादेर्भिन्नत्वान्न प्रतिभासः, भेदेनाध्यक्षप्रतिभासनाऽविरोधात् । दृश्यन्त एव हि भिन्नरूपा घट-पटादयोऽध्यक्षप्रतिभासमादधानाः। तद् न भाविभूतरूपताऽध्यक्षावसेयेति स्मृतिविषयः पूर्वरूपता दर्शनावभासिनोऽर्थस्य मौत आ जायेगी। मतलब, ज्ञाता मृत बन जायेगा। यदि कहें कि – 'मृत्यु के आ जाने पर ही 'मृत' 10 ऐसा व्यवहार होता है, स्व-उत्पत्ति समय में मृत्यु संनिहित न होने से 'मृत' व्यवहार नहीं होगा। क्या दोष है ?' - इस का उत्तर यह है कि मृत्यू उस काल में संनिहित नहीं है यानी 'भावि' है। आपने कहा है कि दर्शन से भाविरूपता का ग्रहण मान लेंगे - तो अब क्यों ऐसा कहते हैं कि मृत्यु (भाविरूप) संनिहित न होने से 'मृत' ऐसा व्यवहार नहीं होगा ? जब कि भाविरूप (मृत्यु) भी पूर्व दर्शन से गृहीत होने का तो आपने मान ही रखा है। अब आप ही कहिये कि मुत्य उस काल में नहीं है यानी 15 असत् है तो वह पूर्व दर्शन में कैसे प्रतिबिम्बित होगा ? यदि पूर्वदर्शन में मृत्यु भासित नहीं होता तो भाविरूपतानुगत भाव पूर्वदर्शन में भासित कैसे कहा जा सकेगा ? निष्कर्ष, दर्शन में जो वर्तमान रूप भासित होता है वही प्रत्यक्ष माना जाय, भाविरूप प्रत्यक्ष न माना जाय । यदि भाविरूप का प्रत्यक्ष माना जायेगा तो मृत्युपर्यन्त सभी भाविरूपों का वर्तमान दर्शन में ही प्रतिभास स्वीकारना पडेगा, फलतः मृत्यु पर्यन्त सभी भावि पर्याय अभी वर्तमान काल 20 में ही प्रतिभासित हो कर अस्त हो जाने से उन भावि पर्यायों को ग्रहण करने वाली तत्तत्कालीन सर्व बुद्धियाँ निर्विषयक (क्योंकि उन का विषय अस्त हो चुका है इस लिये निर्विषयक) ठहरेगी। [ पूर्वरूपता का ग्रहण मानने पर त्रिकालदर्शित्व प्रसक्ति ] और भी एक बात :- यदि पूर्वरूपता और भाविरूपता को अध्यक्ष का विषय माना जाय तो, दृश्यरूपता और स्मर्यमाणता (यानी स्मृतिविषयता) का भेद रहने पर भी वह प्रत्यक्ष विषय हो सकते 25 हैं, उस में भूत-भावि में कोई सीमांकन न रहने से ज्ञाता मात्र त्रिकालदर्शी हो जायेगा। फिर यह जो आप कहते हैं कि “भविष्य में होने वाली घटना वर्तमान ज्ञानकाल में न होने से उस में नहीं भासती" यह कथन निरर्थक हो गया। कारण, अब तो आपके कथनानुसार, भाविकालता और भूतकालता जैसे वर्तमान में सत् न होने पर भी दर्शन में भासते हैं तो भावि धर्मादि भी दर्शन में प्रतिभासित होंगे भले उस काल में असत् हो। यदि कहें कि - 'पूर्वरूपता और भाविरूपता एक अर्थगत होने 30 से अभिन्न हो कर भासित हो सकते हैं लेकिन भाविधर्मादि तो वर्तमान अर्थ से भिन्न होने से उस का प्रतिभास नहीं होगा' - तो यह अनुचित है क्योंकि भिन्न रहते हुए भी भाविरूपता की तरह प्रत्यक्षग्राह्य होने में क्या विरोध है ? क्या नहीं देखते कि घट-पटादि अर्थ भिन्न होते हुए भी प्रत्यक्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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