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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १३९ सत्यार्था स्यात्। अतोऽक्षधीवर्तमानमेव रूपं प्रत्येति स्मृतिरपि तदसंस्पर्शि परोक्ष रूपमिति न तयोरैक्यम् प्रतिभासभेदस्य सर्वत्र भेदकत्वात् तस्य च विशदाविशदरूपतयावभासमानयोदृश्य-स्मर्यमाणयोः सद्भावात् कथं न भेदः ? ___किञ्च, यदि शुद्धमेव दर्शनं स्मृतिनिरपेक्षं पूर्वरूपताग्राहि, नन्वेवं भाविरूपताग्राहि प्रथमदर्शनं किं नोपेयते ? न हि भावि-भूतयोरसंनिहितत्वे विशेष: येनैकत्राध्यक्षवृत्तिरपरत्र नेति भवेत् ? न च 'पूर्वदृष्टं 5 पश्यामि' इति व्यवसायात् पूर्वरूपे एव दर्शनव्यापारः, 'पूर्वमेवेदं मया दृष्टम्' इत्यध्यवसायाद् भाविरूपेऽपि दर्शनव्यापारप्रसक्तेः । अतोऽपाकृतम्- “इदानींतनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम्" (०) इति । न च पूर्वदृशा तदा भाविकालताया असंनिधानादग्रहणम्, सम्प्रति दर्शनकाले पूर्वरूपताया अप्यसंनिधेस्ततोऽग्रहणप्रसक्तेः । यदि पुन विरूपतामप्यध्यक्षमनुभवति ‘पूर्वमेवेदं मया दृष्टम्' इति व्यवहृतिदर्शनात्, तर्हि प्रथमसंवेदनमेव मरणावधिरूपपरम्परामधिगच्छतीति तदैव मृतो भवेत् ? न च 'मृतिसद्भावे मृतो भवति, उत्पत्तिसमये 10 तु नासाविति कुतोऽयं दोषः' ?, यतो यदि तदासौ नास्ति कथमसती सा दर्शने प्रतिभाति ? तदप्रतिभासने अर्थभेदसिद्धिकारक होता है, दृश्य अर्थाकार स्पष्ट भासित होता है स्मृतिविषय अर्थाकार अस्पष्ट भासित होता है - इस प्रकार प्रतिभासभेद यहाँ विद्यमान होने से स्मृतिविषय और प्रत्यक्षग्राह्य अर्थ का भेद क्यों नहीं होगा ? [ पूर्वरूपता का ग्रहण माने तो भाविरूपता के ग्रहण की आपत्ति ] 15 और एक बात - शुद्ध दर्शन को आप जब पूर्वरूपता का ग्राहक मान लेते हो, तब उसी तरह आद्य शुद्ध दर्शन को भाविरूपता का ग्राहक क्यों नहीं मानते ? जैसे भाविकालीन वस्तु वर्तमान दर्शन को असंनिकृष्ट है वैसे भूतकालीन भी वस्तु वर्तमान दर्शन को असंनिकृष्ट है, कोई भेद नहीं है कि जिससे पूर्वरूपता के प्रति अध्यक्ष की वृत्ति पक्षपात करे और भाविरूपता के प्रति न करे। यदि कहा जाय - ‘पूर्वदृष्ट को देख रहा हूँ' ऐसा अनुभव पूर्वरूपता के ग्रहण में ही दर्शनव्यापार को सिद्ध 20 करता है, न कि भाविरूपता के ग्रहण में।' - ऐसा कहेंगे तो ‘इस (घटादि) चीज को पहले ही मैं देख चुका हूँ' इस अध्यवसाय से, दर्शन के द्वारा ‘इस' (यानी पूर्व दर्शनकाल की अपेक्षा भाविकालीन) चीज को पूर्वकाल (दर्शनकाल) में ग्रहण होने का सिद्ध होने से भाविरूप में भी दर्शन का ग्रहणाधिकार क्यों सिद्ध नहीं होगा ? अत एव आप के ग्रन्थ में जो कहा है कि 'इस काल का अस्तित्व (वर्तमानकालीन । चीज) पूर्वबुद्धि से अवगत नहीं है।' - यह भी फिर निरस्त हो जायेगा । [पूर्व-भाविरूपता उभय के प्रति असंनिकृष्टता तुल्य ] ___ यदि कहें कि - ‘पूर्व दर्शन से भाविकालता का ग्रहण स्वकाल में उस के असंनिकृष्ट होने से शक्य नहीं है' - तो इसी तरह वर्तमान में पूर्वरूपता भी दर्शन की संनिकृष्ट नहीं है इस लिये वर्तमान दर्शन से पूर्वरूपता का ग्रहण लुप्त हो जायेगा। यदि कहें कि - 'चलो ! मान लेंगे, दर्शन भाविरूपता का भी अनुभव करता है क्योंकि ‘पहलेही यह मैंने देख लिया है' - ऐसा व्यवहार होता दीखता है 30 - तो उस की कोई भाविकालसीमा न होने पर ‘पहले मैंने इस चीज को देख लिया है' इस अनुभव के आधार से, आद्यदर्शन से भावि मरणपर्यन्त सर्व पर्यायों का ग्रहण हो जाने से तत्काल ज्ञाता की 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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