SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ___ न च, पूर्वदृश्यमानता तत्र व्युपरता दृष्टता तु तदैवोत्पन्नेति कथमसती येन तां प्रतियती प्रत्यक्षमतिर्निरालम्बना भवेत् ? - यतो यदि दृष्टता तत्र संनिहिता भवेत् तदा प्रथममागतो नीलादिरूपतामिव तामप्यधिगच्छेत्, न चाधिगच्छतीति ज्ञानस्वभावोऽसाधारणतयाऽसौ, नार्थस्वरूपमिति कुतोऽध्यक्षावसेया ? तथाहि- पूर्वदर्शन मनुस्मरन्नेव पूर्वदृष्टतां व्यवहारी तत्राध्यारोपयति विस्मरणे तदनध्यवसायात्, यच्च स्मृतिरध्यवस्यति स्वरूपं 5 न तद्दर्शनपथोपयुक्तम् आकारभेदात् । न च तदर्शन-स्मरणे एकं विषयं बिभृतः ‘पूर्वदृष्टं पश्यामि' इत्यध्य वसायात् । यतः किं स्मर्यमाणं दृश्यमानमानतया रूपं प्रतीयते आहोस्विद् 'दृश्यमानं स्मर्यमाणतयेति विकल्पद्वयम्। तत्र यद्याद्यः पक्षस्तथा सति स्मर्यमाणं परिस्फुटतया रूपमाभातीति कथं तस्य परोक्षता ? aअथ द्वितीयः तत्रापि दृश्यमानं स्मर्यमाणेन रूपेणावभातीति सर्वं परोक्षं भवेदिति न काचिदध्यक्षमति: भान मानेंगे तो वह (वर्तमान दर्शन) निर्विषयक ही (यानी असदर्थग्राही होने से अप्रमाण) प्रसक्त होगा। [ दृष्टता अर्थस्वरूप नहीं, पूर्वज्ञानस्वरूप है ] यदि कहा जाय - 'पूर्वकाल में तो यहाँ दृश्यमानता थी और वह तो दर्शनकाल में अतिक्रान्त है, दर्शनकाल में तो दृष्टता ही उत्पन्न हो कर विद्यमान है उसे असत् क्यों ठहराते हो ? विद्यमान तो सत् है, उस को प्रदर्शित करनेवाली प्रत्यक्षबुद्धि निर्विषयक कैसे हो सकती है ?' – उत्तर में कहते हैं कि यदि उस अर्थ में दृष्टता सत् एव संनिहित है तो जिसने पहले नहीं देखा है और पहली 15 बार उधर आ गया और देखता है उस को भी नीलादिरूपता के साथ वह दृष्टता प्रत्यक्ष हो जायेगी। नहीं होती है उसका मतलब वह दृष्टता पूर्वज्ञान का स्वभाव है न कि अर्थ का असाधारण स्वरूप। ऐसी स्थिति में कैसे उसे प्रत्यक्षग्राह्य मानेंगे ? देखिये - वर्तमान में कोई पूर्वदृष्टता का दर्शन के बाद स्मरण करनेवाला व्यवहर्ता ही पूर्वदृष्टता का उस में अध्यारोप करता है, अगर याद नहीं करता, (विस्मरण हो गया) तो वह उसे अध्यवसित (यानी आरोपित) भी नहीं कर सकता। याद जब करता 20 है तब स्मृति में जो ‘पूर्वदृष्टता' स्वरूप स्फुरित होता है वह दर्शनपंथ में, यानी दर्शनकारक इन्द्रियों के लिये अनुपयुक्त है क्योंकि स्मृतिप्रेरित आकार और इन्द्रियजन्यदर्शनप्रदर्शित आकार दोनों में भेद है। [दृश्यमान और स्मर्यमाण के भेद का उपपादन 1 यदि कहें – 'पूर्वदृष्ट को देखता हूँ' इस अध्यवसाय से मानना पडेगा कि दर्शन और स्मरण, दोनों का विषय एक ही है। - तो यह ठीक नहीं है। यदि दर्शन-स्मरण एक हैं तो दो विकल्प 25 खडे होंगे। (a) याद किया जानेवाला विषय दृश्यमान के रूप में प्रतीत होता है ? या (b) दृश्यमान विषय ‘याद किया जा रहा है' इस रूप से प्रतीत होता है ? प्रथम विकल्प मानते हैं तो याद किया जानेवाला अर्थ स्पष्टरूप से प्रतीत होने के कारण प्रत्यक्ष हो गया, उसे परोक्ष (स्मृतिविषय) कैसे कहेंगे ? bदूसरे विकल्प को मानेंगे तो दृश्यमान अर्थ मात्र स्मृतिविषयत्वेन प्रतीत होने के कारण परोक्ष बन गये, विषयमात्र परोक्ष सिद्ध होने पर कौन सा ज्ञान प्रत्यक्षरूप बचेगा ? बचेगा तो भी 30 वह सत्यार्थग्राही तो नहीं होगा। सच तो यह है कि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षज्ञान सिर्फ वर्तमान अर्थ को ही जानता है, उस को न छूने वाली स्मृति परोक्ष विषय को ही अवगत करती है, दोनों के ग्राह्य पृथक् हैं अत एव स्मृति एवं दर्शन के विषयों का एकत्व असंभवित है। सर्वत्र प्रतिभासभेद ही For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy