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खण्ड-४, गाथा-१
१३७ न च पूर्वदर्शनमेव पूर्वरूपसङ्गतमर्थमनुभवदेकत्वे प्रमाणम् । यतो यदि पूर्वरूपतामर्थस्याऽऽद्यदर्शनमेवावभासयति तथा सति पूर्वापरैकत्वं तदेवावगमयिष्यतीति तत्र स्मृतिः प्रवर्त्तमाना व्यर्था। न च तदपि पूर्वरूपतां तस्यावभासयितुं क्षमम् तस्य सन्निहितमात्रविषयत्वात् । पूर्वरूपता हि पूर्वदेशकालदशासम्बन्धिता, पूर्वदेशादीनां च तद्दर्शनेऽप्रतिभासनाद् न तत्स्पर्शिरूपप्रतिभासस्तत्र संभवी। न हि तदप्रतिभासे तत्सम्बन्धिपदार्थरूपप्रतिभासः, अन्यथा नीलताऽप्रतिभासेऽपि पीते नीलसम्बन्धिताऽवगतिर्भवेत्। तन्नैकत्वग्राहिण्य- 5 ध्यक्षमतिः।
यच्च ‘दृष्टता प्रत्यक्षग्राह्या' इति परैरुच्यते तत्र दृष्टता यदि तदृशि प्रतिभातता तदा वर्तमानतैव । अथ पूर्वदृशि प्रतिभातता तदा पूर्वदृशोऽप्रतिभासने कथं तत्प्रतिभातताऽवभासः सम्प्रति संवेदने ? तत्र हि स्वदृष्टतया संनिहितं रूपमाभातीति सैव तत्र युक्ता, पूर्वदर्शनं तु प्रत्यस्तमितमिति तदृष्टताऽपि व्युपरतैवेति कथं सा वर्तमानदृशि प्रतिभासेत ? तदभ्युपगमे वा तदृशो निरालम्बनत्वप्रसक्तिः। 10
[ पूर्वदर्शन से पूर्वरूपताविशेषित अर्थ का ग्रहण अशक्य ] यदि कहें कि – 'पूर्वदर्शन ही पूर्वरूपतासंकलित अर्थ का अनुभव करता हुआ पूर्वापर की एकता को प्रमाणित कर देगा।' – ऐसा नहीं होगा, यदि आद्यदर्शन ही अर्थ की पूर्वरूपता का ग्रहण कर लेगा तो उस दशा में वह पूर्वापर एकत्व को अवभासित कर देने से, पूर्वरूपताग्रहण करनेवाली स्मृति निरर्थक बन जायेगी। वास्तव में तो आद्यदर्शन भी पूर्वरूपता को प्रदर्शित करने में सक्षम नहीं हो सकता, क्योंकि वह सिर्फ संनिकृष्ट वस्तु को ही ग्रहण कर सकता है, पूर्वरूपता दर्शनजनक नेत्र की सन्निकृष्ट नहीं होती। पूर्वरूपता का पर्यायार्थ है पूर्वदेश-पूर्वकाल या पूर्वदशा का संसर्ग। आद्यदर्शन में पूर्वदेशादित्रिक में से एक का भी प्रतिभास नहीं होता। इस लिये आद्यदर्शन में पूर्वदेशादिसम्बद्ध अर्थस्वरूप का प्रतिभास असम्भवित है। पूर्वदेशादि के प्रतिभास के विरह में उन से सम्बद्ध अर्थ के स्वरूप का प्रतिभास (= प्रकाशन) शक्य नहीं है। ऐसा नहीं मानेंगे तो नीलरूपता का प्रतिभास न होने पर भी नीलसम्बद्धस्वरूपादि का बोध प्रसक्त 20 होगा। सारांश, अध्यक्षबुद्धि एकत्व का अध्यवसाय नहीं करती।
[ दृष्टता दर्शन से गृहीत नहीं होती ] कुछ तीर्थिक कहते हैं कि - जब घटदर्शन होता है तब घट में ‘दृष्टता' (प्राकट्य) आविर्भूत होती है, फिर प्रत्यक्ष से ‘दृष्टो मया घटः (= घट मुझ से दृष्ट है)' ऐसा दृष्टता का बोध होता है। मतलब, भूतकाल गर्भित दृष्टता प्रत्यक्षग्राह्य है। इन के प्रतिकार में बौद्ध कहते हैं - दृष्टता 25 का सिर्फ इतना ही अर्थ हो कि दर्शन में अर्थ की भासमानता, तो यहाँ भूतकाल का नहीं वर्तमानकाल का ही उल्लेख है। यदि कहें कि दृष्टता यानी, पूर्व (भूतकालीन) दर्शन में भासितत्व, तो प्रश्न खडा होगा कि वर्तमान प्रत्यक्ष में पूर्वकाल एवं तत्सम्बद्ध दर्शन प्रतिभासित ही नहीं होता तो वर्तमान संवेदन में, तत्कालीनदर्शन में भासमानत्वरूप दृष्टता कैसे स्फुरित होगी ? प्रत्यक्ष संवेदन में सिर्फ वही अर्थस्वरूप भासित होता है जो स्वदर्शनविषयीभूत हो कर संनिकृष्ट रहता है। अत एव स्वदृष्टता 30 ही उस में युक्तिसंगत है। पूर्वदर्शन तो स्वकाल में विनष्ट है, उस के साथ पूर्वदर्शनदृष्टता भी विनष्ट हो ही चुकी है, कैसे वह वर्तमान संवेदन में भासित हो सकेगी ? विनष्ट रूप का भी उस में
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