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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ किञ्च, किं कुर्वाणा स्मृतिरिन्द्रियस्य सहकारित्वं प्रतिपद्यते ? पूर्वापरस्य ढौकनमिति चेत् ? ननु विनष्टेऽप्यर्थे स्मृतिरुदयन्ती दृष्टेति कथं तत्सन्निधापिते पौर्वापर्ये प्रवर्त्तमानाध्यक्षधी: सत्यार्था भवेत् ? अथ यदुपरतं वस्तु तद्ग्राहिणी बुद्धिर्न सत्यार्थग्राहिणीति युक्तम् अनुपरतं त्वर्थमवगच्छन्ती कथं सा न सत्यार्था ? अयुक्तमेतत्; यतः स्मर्यमाणस्यार्थस्यानुपरतिः कुतोऽवगता ? न स्मरणात्, व्युपरतेऽपि 5 स्मृतिप्रवृत्तेरित्युक्तत्वात् । न च स्मरणोपनीतपौर्वापर्यस्य दर्शने प्रतिभासनात् तदप्रच्युतिः, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि- स्मर्यमाणस्यार्थस्यानस्तमयसिद्धेस्तदुपनीते तत्र दर्शनप्रवृत्तिः सिद्ध्यति, तत्सिद्धौ च स्मरणोपनीतस्यानस्तमयसिद्धिरिति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? अथ स्मृतिः सम्प्रति प्रतिभासविषयादर्थाद् भिन्नं विषयमध्यवसन्ती निरालम्बना स्यात् प्रतिभासविषयं तमेवार्थमुल्लिखन्ती तु कथमसदर्थविषया ? न, दर्शनगृहीतमेवार्थमुल्लिखतीत्यत्र प्रमाणाभावान्न स्मरणोपनीतैकत्वावभासिन्यध्यक्षमति: सत्यार्थग्राहिणी सिद्धा। [ स्मृतिसहकृत अध्यक्ष सत्यार्थग्राहि नहीं ] दूसरी बात, स्मृति क्या सहकार देती है ? जिस से कि वह इन्द्रिय की सहकारी बन सके ? 'इन्द्रिय के सामने पूर्वापर भाव को उपस्थापित करना' ऐसा सहकार असंगत है। अरे ! स्मृति तो विनष्टार्थ के ग्रहण में भी तत्परता दिखाती है, सोचो कि उस से उपस्थापित पूर्वापरभाव के ग्रहण में अध्यक्षबुद्धि कैसे प्रवृत्त हो सकेगी ? कदाचित् प्रवृत्ति हुयी तो वह सत्यार्थग्राहिणी कैसे हो सकती ० है ? यदि यह कहा जाय – वस्तु नष्ट हो गयी बाद में उस की ग्राहक बुद्धि सत्यार्थग्राहिका नहीं हो सकती यह हकीकत है, किन्तु विद्यमान है तो उस की ग्राहक बुद्धि क्यों सत्य नहीं होगी ? प्रत्यभिज्ञा के काल में प्रत्यक्ष स्मृतिउपस्थापित विद्यमान अर्थ को ग्रहण करे तो असत्य नहीं हो सकता। - यह गलत है। कैसे आपने मान लिया कि प्रत्यक्षकाल में स्मृतिढौकित अर्थ जीवित है ? जीवित होने का प्रमाण उस की स्मृति नहीं है, स्मृति तो विनष्ट अर्थ का भी ग्रहण करती है, यह पहले कहा जा चुका है। यदि कहें कि - ‘स्मृति से प्रतिपादित, एक ही अर्थ का पूर्वापरभाव प्रत्यक्ष में भासित होता है अत एव वह अर्थ जीवित सिद्ध होता है।' - तो यहाँ इतरेतराश्रय दोष गले पडेगा। कैसे यह देखिये - स्मृति से प्रतिपादित अर्थ की विद्यमानता सिद्ध होने पर स्मृतिप्रेरित अर्थ के ग्रहण में प्रत्यक्ष की गति सिद्ध होगी, प्रत्यक्ष की उस में गति सिद्ध होने पर स्मृतिप्रेरित अर्थ की विद्यमानता ॐ सिद्ध होगी, यहाँ अन्योन्याश्रय दोष क्यों नहीं आयेगा ? [दर्शनप्रदर्शित अर्थ का स्मृति द्वारा उल्लेख निष्प्रमाण ] यदि कहा जाय – दर्शन से प्रदर्शित वर्तमानकालीन अर्थ से भिन्न विषय को यदि स्मृति अध्यवसित करती है तो मान सकते हैं कि स्मृति निरालम्बन यानी नष्ट यानी असत्विषया है। किन्तु जब दर्शनप्रदर्शित अर्थ को ही स्मृति उल्लिखित करती है तब वह असद्विषया कैसे होगी ? - यह भी नहीं कह सकते, 30 क्योंकि 'दर्शनप्रदर्शित अर्थ का ही स्मृति उल्लेख करती है' ऐसा मानने के लिये कोई ठोस सबूत नहीं है। सारांश, स्मृतिप्रतिपादित अर्थ और स्वगृहीत (विकल्पगृहीत) अर्थ के अभेद को दर्शानेवाली प्रत्यक्षबुद्धि (यानी विकल्पमति) सत्यार्थ की ग्राहिका है ऐसा सिद्ध नहीं हुआ। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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