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खण्ड-४, गाथा-१
१३५ ध्यक्षविषयस्तत्त्वम् आद्यदर्शनानधिगतत्वात्।
___ अथ सहकारिवैकल्याद् यद्यप्याद्यदर्शनावभासि न तत्त्वं तथापि न तन्नास्ति। न हि तीक्ष्णांशुकरनिकरोपहतदृशां गर्भगृहाद्यनुप्रवेशानन्तरमप्रतिभासमाना अपि घटादयो भावाः स्वस्थीभूतनेत्राणां न प्रतिभान्ति; न च प्रागप्रतिभासनान्न सन्ति । यथा च सहकारिवशात् पूर्वमप्रतिभाता अपि पश्चात् प्रतिभान्ति तथात्राप्याद्यदर्शनं शुद्धार्थावभासि यद्यपि तत्त्वं नानुभवति स्मरणसहायाक्षप्रभवा तु प्रत्यभिज्ञा तदनुभविष्यतीति न तत्त्वस्या- 5 सत्त्वम् । नाप्याक्षान्वय-व्यतिरेकानुविधायिनी प्रत्यभिज्ञा न प्रत्यक्षमिति। अत्रोच्यते- यद्यक्षप्रभवा संविदाद्या न तत्त्वमवभासयति पश्चादपि तदविषयत्वान्नावभासयेत् यथा ह्यक्षमविषयत्वान्नैकत्वे प्रतिपत्तिं विदधाति तथा स्मरणसहकृतमपि न तत्र तां विधास्यति अविषयत्वाविशेषात् । न हि परिमलस्मरणसहायमपि लोचनं गन्धे प्रतिपत्तिकृदुपलब्धमिति न तत्त्वग्रहणमध्यक्षात् । के अर्थक्रियाकारित्व का भी पता लग जायेगा जो प्रमाणसिद्ध नहीं है। सारांश, कल्पनाध्यक्ष (सविकल्प 10 प्रत्यक्ष) का विषय विशेष्य-विशेषणभावादि तात्त्विक नहीं है क्योंकि इन्द्रियसंनिकर्षजन्य आद्य प्रत्यक्ष से उस का प्रदर्शन नहीं होता।
[ उत्तरकालीन सविकल्प प्रत्यक्ष से तत्त्व का अवभास ] यदि कहा जाय - आद्यदर्शनकाल में सहकारिकारण की अनुपस्थिति से तत्त्व (अर्थक्रिया) का अवभास नहीं होता यह सच है, किन्तु बाद में भी नहीं होता ऐसा तो नहीं है। जब आदमी प्रचंड 15 सूर्यप्रकाश में बाहर घूम कर घर के भीतर प्रवेश करता है तब अतिप्रकाश से व्याहत चक्षु को प्रारम्भ में घर में कुछ भी नहीं दीखता, किन्तु बाद में नेत्र स्वस्थ होने पर, 'घटादि भाव नहीं दिखते' - ऐसा तो नहीं है। पहले घटादि प्रतिभास नहीं हुआ इस लिये वे घटादि वहाँ नहीं थे ऐसा भी नहीं है। जैसे पूर्व में अप्रकाशित घटादि बाद में सहकारी की सहायता से भासित हो सकते हैं, वैसे ही यहाँ प्रस्तुत में शुद्धार्थग्राहि आद्य दर्शन से तत्त्व (अर्थक्रिया) का अनुभव नहीं होने पर भी 20 स्मृति की सहायता से इन्द्रियजन्य प्रत्यभिज्ञा से तत्त्व का अनुभव हो सकता है। इस लिये तत्त्व के सत्त्व का अपलाप नहीं हो सकता। 'प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षबोधात्मक नहीं है' ऐसा नहीं कह सकते । प्रत्यभिज्ञा भी इन्द्रिय के अन्वय-व्यतिरेक सहचार का अनुविधान करती है, इस लिये इन्द्रियजन्य होने से प्रत्यक्षात्मक ही है। [ अध्यक्ष से अभेदतत्त्व का अवभास अशक्य ]
25 इस के प्रतिकार में बौद्ध कहता है - इन्द्रियजन्य आद्य दर्शन जब तत्त्व का अवभास नहीं कराता तो बाद में भी वह उस का अवभास करा नहीं सकता, क्योंकि वह उस का विषय नहीं है। उदा० एकत्व यानी पूर्वापर का अभेद अध्यक्ष का विषय नहीं है इसलिये वह एकत्व का अवभास नहीं करता, इसी तरह प्रस्तुत में स्मृति की सहायता मिलने पर भी, अपना विषय न होने से ही तत्त्व का अवभास नहीं करा सकेगा। देखिये - गन्ध लोचन का विषय नहीं है तो परिमल (सुगन्ध) 30 की स्मृति का सहकार मिलने पर भी चाक्षुष अध्यक्ष कभी भी गन्ध का साक्षात्कार नहीं करता। इसी तरह अध्यक्ष तत्त्व का भी अवभास कर नहीं सकता।
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