________________
१३२
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ स्मृतिर्भवेत्। न च वर्तमानमर्थमध्यक्षमेवोद्भासयतीति किं तत्र स्मृत्या ? यत्र हि दर्शनानवतारस्तत्र स्मृतिपरिकल्पना फलवती स्पष्टदर्शनावतारे तु वर्तमानसमयभाविनि रूपादौ स्मृतिप्रवृत्तिरसम्भविनी विफला चेति न तत्परिकल्पना। नन्वेवमतीते विशेषणादौ स्मृतिरेव प्रवर्तिष्यत इति किं तत्र विशदसंविदवतारेण ?
सा हि सन्निहितमेवार्थमवतरति, न च तदा विशेषणादयः सन्निहिताः तानवलम्बमाना निरालम्बनैव 5 भवेत्। ततो विशुद्धरूपमात्रप्रतिभासादध्यक्षसंविद् निरस्तविशेषणमर्थमवगमयति। विशेषणयोजना तु स्मरणा
दुपजायमाना अपास्ताक्षार्थसन्निधिर्मानसी। न च स्पष्टप्रतिभासाद् वर्तमानार्थग्राहिणीति वक्तव्यम् तामन्तरेणापि स्फुटमर्थप्रतिभासात् । न च स्मृतिमन्तरेणापि यदि विशदतनुरात्मा प्रतिभातीति न तस्य ग्राहिका स्मृतिस्तक्षव्यापारसद्भावे सुखमन्तरेणापि विषयावगतिरस्तीति सुखमपि विषयग्राहि न स्याद् । यतो निरस्त
बहिरर्थसन्निधयो भावनाविर्भूततनवः सुखादयो नार्थावेदकाः स्वग्रहणपर्यवसितस्वरूपत्वात् तेषाम् । अक्षान्व10 यव्यतिरेकानुविधायिन्यो विशदसंविद एव बहिरावभासिकाः पृथगवसीयन्ते सुखादिभ्यस्ता एव तदवभासिकाः,
___ यदि कहें कि - ‘वर्त्तमानकालीन अर्थ का प्रदर्शन तो प्रत्यक्ष ही करता है (उस में विवाद नहीं है) फिर उस के ग्रहणार्थ स्मृति क्यों साहस करेगी ? जहाँ दर्शन का अवतार, दर्शन की पहुँच नहीं है ऐसे अतीत विषयों के ग्रहणार्थ ही स्मृति की परिकल्पना सफल होती है। जहाँ स्पष्ट ही वर्तमानकालीन
रूपादि में दर्शन का अवतार संभव है वहाँ स्मृति की प्रवृत्ति संभव ही नहीं है, सम्भव होने पर 15 भी निष्फल है अतः वहाँ स्मृति की कल्पना निरवकाश है।' - हमारा भी यही कहना है कि भूतकालीन
विशेषणादि का ग्रहण भी स्मृति को ही करने दो, क्यों उस के लिये शुद्ध दर्शन को श्रमित कर रहे हो ?
[शुद्ध दर्शन असंनिहित विशेषण का असंवेदक ] शुद्ध दर्शन सिर्फ संनिकृष्ट अर्थ को ही स्पर्शता है। विशेषणादि उस वक्त संनिकृष्ट नहीं होते। 20 अतः असंनिकृष्ट विशेषणादि को विषय बनाने के लिये साहस करनेवाला शुद्ध दर्शन अपने विषय
से ही वंचित रह जायेगा। सारांश, प्रत्यक्ष संवेदन संनिकृष्ट विषय के शुद्ध स्वरूप (यानी विशेषणादिदागरहित) को ही प्रतिभासित कर सकता है, अत एव वह विशेषणादिदागरहित अर्थ को ही अवगत करता है। बाद में स्मति से विशेषणादियोजना साकार होती है किन्त वह मानसिक ही होती है (इन्द्रियजनित
नहीं), उस में इन्द्रियार्थसंनिकर्ष की प्रेरणा नहीं होती। यदि कहें कि विशेषणादिबुद्धि (यानी स्मृति) 25 स्पष्टप्रतिभासरूप होने से वर्त्तमानस्पर्शी क्यों न मानी जाय ? तो उत्तर है कि स्मृति के विना भी
स्पष्ट अर्थप्रतिभास होता है इस लिये स्मृति को वर्तमानार्थस्पर्शी नहीं मान सकते। यदि कहा जाय - "स्मति के विरह में भी स्पष्ट अर्थस्वरूपभान (प्रत्यक्ष में) होता है इस लिये आप स्मृति को वर्त्तमानार्थग्राहकतया निषेध करते हैं; तो इन्द्रियव्यापार के होते हुये सुखवेदन के विना भी विषयबोध
होता है इस लिये सुखादि (सुखसंवेदनादि) भी विषयग्राहि मिट जायेंगे।” – तो यह ठीक नहीं है, 30 क्योंकि सुखादि संवेदन बाह्यार्थसंनिधानहेतुक नहीं किन्तु मानसिक भावना पर निर्भर होते हैं, इस लिये
सुखादि (संवेदन) कभी भी अर्थग्राहक नहीं होते, वे तो अपने आह्लादसंवेदन में ही मस्त हो कर रहते हैं। वे इन्द्रिय के साथ अन्वय-व्यतिरेक सहचारी नहीं होते। शुद्ध दर्शन ही इन्द्रियान्वयव्यतिरेकसहचारी
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org