SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड - ४, तद्वद्, विकल्पोऽपि नार्थसाक्षात्करणस्वभाव इति । ननु यदि न पुरःस्थितार्थग्राही विकल्पः कथं ततस्तत्र प्रवृत्तिर्भवेत् ? यदेव विशेषणादिकं प्राक् तेनानुभूतं तत्रैव ततः प्रवृत्तिर्भवेत् । न हि स्वात्मानमनारूढेऽर्थे प्रवृत्तिविधायि विज्ञानमुपलब्धम् अन्यथा शुक्लमर्थमवतरन्ती संविन्नीलार्थे प्रवर्त्तिका भवेत् । न च निर्विकल्पकमेव संवेदनं वर्त्तमानेऽर्थे प्रवृत्तिविधायि, विकल्पमन्तरेणापि सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसक्तेः । न च सुखसाधनत्वनिश्चयमन्तरेण पुरःप्रकाशनमात्रेण कश्चित् 5 प्रवर्त्तते इति विकल्प एव पुरोव्यवस्थितार्थग्राही, प्रवर्त्तकत्वात् । अक्षानुसारितया च स एवाध्यक्षम्, इति युक्तं पूर्वदृष्ट- नामादिविशेषणग्राही निश्चय इति । एतदप्यसङ्गतम् - धूमग्राह्यध्यक्षव्यतिरिक्ताऽस्पष्टावभासाग्न्यनुमानाकारस्येव विशददर्शनभृतोऽर्थाकाराद् व्यतिरिक्तविकल्पमत्युल्लिख्यमानाऽ स्पष्टाकारस्य तदाऽननुभवात् । ततो, 'बहिरर्थग्राहिण्यो विकल्पमतयोऽभ्युपगन्तव्या । न पुनस्तदा विकल्पमतिः पूर्वदृष्टविशेषणमात्राध्यवसायिनी अपरा, पुरोवर्त्तिविशदार्थावभासाध्यक्षसंविदपरैव भेदप्रतिभासाभावादि'त्यसदेवैतत् । होते हैं । इसलिये बाह्यार्थसंवेदी शुद्धदर्शन सुखादि से पृथक् ही प्रतीत होते हैं । अत एव विशद संवेदन ही बहिरर्थ- अवभासक होते हैं । जैसे यहाँ शुद्ध दर्शन ही बाह्यार्थवेदक है न कि सुखादि, ऐसे ही विकल्प भी अर्थसाक्षात्कारस्वभाववाला नहीं होता । Jain Educationa International गाथा - १ - [ विकल्प के विना प्रवृत्ति की अनुपपत्ति ] यदि कहा जाय - अगर विकल्प दृष्टिसमक्ष स्थित अर्थ का ग्राहक नहीं है तो विकल्प से होने 15 वाली प्रवृत्ति भी कैसे होगी ? विकल्प द्वारा जिस विशेषणादि का पूर्व में स्वयं अनुभव किया है उसी विशेषणादि के प्रति विकल्प से प्रवृत्ति होती है, यह तो स्पष्ट है। विज्ञान में अस्फुरायमाण अर्थ के प्रति विज्ञान की कोई प्रवृत्ति हो नहीं सकती । अन्यथा, शुक्ल अर्थ द्योतक विज्ञान में नीलादि का स्फुरण न होने पर भी उस से नीलादि अर्थ में प्रवृत्ति प्रसक्त होगी। ऐसा नहीं कि ' वर्त्तमान विषय में निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही प्रवृत्ति कर सके ' क्योंकि तब तो विना विकल्प ही सभी अर्थों में प्रवृत्ति चल पडेगी क्योंकि सभी वर्त्तमान पदार्थ निर्विकल्प विषय हो सकते हैं । ऐसा भी नहीं है कि 'पदार्थ को दृष्टिसमक्ष देखा और त्वरित प्रवृत्ति हो जाय' । जब तक देखे हुए पदार्थ में इष्टसाधनता का निश्चय विकल्प उदित नहीं होता प्रवृत्ति नहीं होती । विकल्प ही प्रवर्त्तक है अत एव वह दृष्टिसमक्षस्थित अर्थ का ग्राहक सिद्ध होता है । वही इन्द्रिय के अन्वयव्यतिरेक का अनुगमन करता है अत एव प्रत्यक्ष है। निश्चित हुआ कि पूर्वदृष्ट अर्थ एवं नामादि विशेषणग्राहक निश्चय है यह युक्तियुक्त है । 20 स्पष्ट दर्शन ही प्रवृत्तिकारक होता है ] उक्त कथन असंगत है धूम से जब वह्नि का अनुमान होता है तब वहाँ धूमविषयक साक्षात्कार से पृथक् ही अस्पष्ट अनलाकार अवभास होता है । प्रस्तुत में स्पष्ट दर्शन भासमान अर्थाकार से अतिरिक्त विकल्पबुद्धि द्वारा स्फुरायमाण किसी अस्पष्टाकार का अनुभव ही नहीं होता । अत एव यह कहना कि - “ ( प्रवर्त्तक होने से ) मानना पडेगा कि विकल्पबुद्धियाँ बाह्यार्थसंवेदी होती है । 'पूर्वदृष्ट विशेषण मात्र की संवेदक विकल्पबुद्धि पृथक् है और दृष्टिसमक्षस्थित अर्थप्रेक्षी अध्यक्षवेदन पृथक् है ।' ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि वैसा पृथक् पृथक् होने का अनुभव नहीं है । " ( यह कथन ) असत् ही है । 30 - १३३ For Personal and Private Use Only 10 25 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy