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________________ खण्ड-४, गाथा-१ येन हि दण्डोपकृतपुरुषजनितार्थक्रिया प्रागुपलब्धा तदर्थी च स तत्र विशेषणत्वेन दण्डं विशेष्यत्वेन च पुरुषं प्रतिपद्यते प्रधानत्वात्, येन च पुरुषोपकृतदण्डेन फलमभ्युपेतं स तत्र दण्डं प्राधान्याद् विशेष्यमध्यवस्यति । अपरिगतफलोपकारस्य प्रथमदर्शने स्वरूपमात्रनिर्भासात् ततोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामवगतसामर्थ्य द्वयमासाद्य विशिष्टत्वप्रतिपत्तिः। प्रागवगते च सामर्थ्य नेन्द्रियस्य व्यापारः तस्याऽसन्निहितत्वात्। न च व्यापाराऽविषये तत् प्रतिपत्तिजननसमर्थम् । न च पुरःसंनिहितेऽर्थे प्रवर्त्तमानमिन्द्रियं तत्रापि प्रतिपत्तिमुपजनयितुं 5 समर्थम् वर्तमानकालालीढनीलादिदर्शनप्रवृत्तस्य चिरातीतभावपरम्परादर्शनप्रवृत्तिप्रसक्तेः सकलातीतभावविषयस्मृतेरध्यक्षता भवेत्, तथा स्वगोचरचारिणी स्मृतिरपि स्फुटार्थं वर्तमानसमयमुद्भासयिष्यतीति सर्वाऽक्षमतिः विशेषणविशेष्य भाव का अवबोध प्रत्यक्ष नहीं है। [कल्पनाप्रेरित विशेषण-विशेष्यभाव की स्पष्टता ] कैसे विशेषण विशेष्यभावस्थापना करती है यह भी जानने लायक है - जिस परुष 10 ने, दण्ड के सहकार से किसी पुरुष द्वारा की गयी चक्रभ्रमणादि अर्थक्रिया पूर्व में देखी है और अभी उसको उस की आवश्यकता है वह अपनी कल्पना से सहकारी दण्ड को (गौण होने से) विशेषणरूप में और प्रधान होने से पुरुष को विशेष्यरूप में अवगत करता है। किसी व्यक्तिने अपने हाथ से दिवार परदण्डाघात किया और दिवार में तिराड हुई- इस घटना को देखने वाला पुरुष दिवार में तिराड करनेवाले दण्ड को प्रधानता दे कर विशेष्य के रूप में और उस का आस्कालन करनेवाले 15 पुरुष को (तिराड बनाने में गौण होने से) विशेषणरूप में अवगत करता है। जिस को यह मालम नहीं है कि दण्डादि का पुरुषादि के प्रति फलजनन में कुछ सहकार है वैसी व्यक्ति को दोनों के प्रथमदर्शन में सिर्फ उन दोनों के शुद्ध स्वरूप का ही अवलोकन होता है, उस के बाद अन्वय-व्यतिरेक के ऊहापोह से, (यानी दण्ड के सहकार से यह चक्रभ्रमण हुआ, वह नहीं होता तो भ्रमण नहीं होता इस प्रकार के ऊहापोह से) एक-दूसरे की शक्ति एक-दूसरे में जान लेने के बाद एकविशिष्ट अपर 20 की बुद्धि हो सकती है। [पूर्वज्ञान सामर्थ्य/ सहकार का प्रत्यक्षग्रहण असंभव ] यदि कहें कि- 'इस प्रकार एक बार पहले सामर्थ्य (सहकार) भान हो जाने के बाद प्रत्यक्ष से उस का ग्रहण क्यों नहीं होगा ?' - तो उत्तर यह है कि पूर्वज्ञात सामर्थ्य इन्द्रियव्यापार का गोचर नहीं हो सकता क्योंकि अतीत भाव उस का संनिकृष्ट नहीं है। जो अपने व्यापार का विषय 25 नहीं है उस के अवबोध का सामर्थ्य उस में नहीं होता। इन्द्रिय तो दृष्टिसमक्ष उपस्थित अर्थ के ग्रहण में ही प्रवृत्त होता है इसलिये पूर्वज्ञात आदि वस्तु का भान कराने में वह असमर्थ ही है। अन्यथा, वत्तमानकालालिंगित नीलादि के दर्शन में प्रवृत्त इन्द्रिय की चिरभूतकालीन गृहीत वस्तुसमूह के दर्शन में भी प्रवृत्ति प्रसक्त होगी। नतीजा यह होगा कि सर्व अतीत पदार्थ विषयक स्मृतियों में अब स्मृतित्व न रह कर इन्द्रियजन्य हो जाने से प्रत्यक्षत्व प्रसक्त होगा। अथवा, अपने अतीत विषयों 30 की ग्राहक स्मृतियाँ भी इन्द्रिय के सहकार से वर्तमानकालीन रूपादिग्रहण में समर्थ हो जाने से सर्व प्रत्यक्षबुद्धियों में प्रत्यक्षत्व च्युत होकर स्मृतित्व प्रसक्त होगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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