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________________ १३० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ध्यक्षेण तस्य ग्रहणम्। तथाहि- चक्षुर्व्यापारे पुरोव्यवस्थितश्चैत्र एव परिस्फुटमाभातीति तन्मात्रग्रहणान्न तद्विशिष्टत्वप्रतीतिः । न चाऽसंनिहितमपि विशेषणं स्मरणसन्निधापितमक्षबुद्धिरधिगच्छति, स्मरणात् प्रागिव तदुत्तरकालमपि विशेषणाऽसन्निधेः तुल्यत्वाद् न तत्र तदाप्यध्यक्षबुद्धिप्रवृत्तिरित्यपास्तविशेषणस्यार्थस्य साक्षात्करणं युक्तियुक्तम् । नापि तुल्यकालयोर्भावयोर्विशेषण-विशेष्यभावमध्यक्षमधिगन्तुं समर्थम् तस्यानवस्थितेः। तथाहि- अविशिष्टेऽपि दण्ड-पुरुषसंयोगे कश्चिद् दंडविशिष्टतया पुरुषं 'दण्डी' इति प्रतिपद्यते अपरस्तु तत्रैव पुरुषविशिष्टतया ‘दंडोऽस्य' इति प्रतिपद्यते असंकेतितविशेषण-विशेष्यभावस्तु ‘दण्ड-पुरुष' इति स्वतन्त्रं द्वयमधिगच्छति। वास्तवे तु तस्मिन् योग्यदेशस्थप्रतिपत्तॄणां दण्ड-पुरुषरूपयोरिव तुल्याकारतयाऽवभासो भवेत्, न चैवम्, तेन दण्डपुरुषस्वरूपमेव स्वतन्त्रमध्यक्षावसेयम्, विशेषण-विशेष्यभावस्तु कल्प नारचित एव। 10 आदि वस्तु उस में भासित नहीं होगी। इस प्रकार दोनों एक प्रत्यक्षबुद्धि में संनिहित नहीं होने से 'स्व' (विशेषण) से विशिष्ट 'स्वामी' आदि की प्रतीति अध्यक्ष में असम्भव है। देखिये – नजर घुमाने पर दृष्टिसमक्ष खडा चैत्र नाम का कोई पुरुष स्पष्ट दीखता है, सिर्फ चैत्र ही दीखता है, उस में किसी का स्वामित्व नहीं दीखता, अत एव धनादिस्वामित्वविशिष्ट रूप से प्रतीति नहीं होती। ऐसा कहना कि – 'स्व' आदि विशेषण दृष्टिसंनिहित न होने पर भी स्मृति प्रत्यक्षबुद्धि में 15 विशेषण को प्रस्थापित कर देती है, इस तरह प्रत्यक्षबुद्धि भी विशेषण को ग्रहण करती है' - योग्य नहीं है, क्योंकि भिन्नकालीन विशेषण-विशेष्य विकल्प की चर्चा है- यहाँ, विशेषण न तो स्मरण के पूर्व संनिहित है न स्मरण के उत्तरकाल में संनिहित है। इस लिये प्रत्यक्षबुद्धि स्मृतिप्रेरित विशेषण का ग्रहण भी कर नहीं सकती। मतलब, प्रत्यक्ष से विशेषणरूप अर्थ का ग्रहण-साक्षात्कार युक्तियुक्त नहीं है। [ समकालीन अर्थों में विशेषण-विशेष्य भाव नहीं ] 20 समानकालीन भावों का विशेषणविशेष्य भाव भी प्रत्यक्ष से गृहीत नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ असमञ्जसता दोष है। कैसे यह देखिये - दण्ड और पुरुष दोनों एक-दूसरे से संयुक्त है, 'किसी एक का ही दूसरे में संयोग' ऐसा नहीं है। परस्पर समानविधया संयोग के होने पर भी किसी एक व्यक्ति (चैत्र) को 'दण्डवान्' इस प्रकार दण्डविशिष्ट पुरुष दिखता है, तो दूसरी व्यक्ति (मैत्र) को 'इस के पास दण्ड है' इस प्रकार पुरुष से विशेषित दण्ड दिखता है; तीसरी व्यक्ति (जिनदत्त) को 25 विशेषण-विशेष्यभावनिरपेक्ष ‘दण्ड और पुरुष' ऐसा दोनों का स्वतन्त्र भान होता है। अब सोचो कि यदि विशेषण विशेष्यभाव वास्तविक है तो उस को देख सके ऐसे उचितदेश में खडे रहने वाले पृथक पृथक् व्यक्तियों को एकाकार (या तो 'दण्डवान्' अथवा 'इस के पास दण्ड' अथवा 'दण्ड और पुरुष' - इन में से कोई भी एक ही) अवभास होना चाहिये, जैसे कि दंड का श्यामरूप और पुरुष के गौर रूप का तीनों व्यक्ति को एकाकार ही अवभास होता है। (सभी को दण्ड श्याम और पुरुष 30 गौर दीखता है।) दण्ड-पुरुष का एकाकार अवभास उक्त प्रकार से होता नहीं है, इसी से यह सिद्ध होता है कि प्रत्यक्षबुद्धि सिर्फ पुरुष एवं दण्ड के स्वतन्त्र स्वरूप को ही प्रगट करती है, जब कि उन के विशेषणविशेष्य भाव को दिखानेवाली बुद्धि कोरी कल्पना है। मतलब, समानकालीन भाव के For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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