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________________ सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २ [ केवलसविकल्पप्रामाण्यस्थापना तन्निरसनं च ] स्यादेतत्- यद्यपि वाचो नयनजप्रतिपत्त्यविषयत्वान्न तद्विशिष्टार्थदर्शनमध्यक्षं तथापि द्रव्यादेर्नयनादिविषयत्वात् तद्विशिष्टार्थाध्यक्षप्रतिपत्तिः सविकल्पिका भविष्यति । तथाहि - नियतदेशादितया वस्तु परिदृश्यमानं व्यवहारोपयोगि, अन्यथा तदसम्भवाद् । देशादिसंसर्गरहितस्य च तस्य कदाचिदप्यननुभवात्। यच्च देशादि5 विशिष्टतया नामोल्लेखाभावेऽपि वस्तु संगृह्णाति तत् सविकल्पकम् । विशेषण- विशेष्यभावेन हि प्रतीतिः कल्पना, देशादयश्च नीलादिवद् तदवच्छेदका दर्शने प्रतिभान्तीति न तत्र शब्दसंयोजनापक्षभावी दोष: । एतदप्यसत् - यतोऽध्यक्षं पुरोवर्त्ति नीलादिकमवलोकयितुं समर्थम् न तदवष्टब्धं भूतलम् । तदनवभासे च कथं तद्विशिष्टमर्थं तदवगन्तुं प्रभु ( : ? ) ? यदपि तदनवष्टब्धं तत्र प्रतिभाति तदपि न तद्विशेषणमिति शुद्धस्यैव सकलस्य प्रतिभासनान्न विशेषण- विशेष्यभावग्रहणम् । तथाहि - दर्शने रूपमालोकश्च स्वस्वरूपव्यवस्थितं [ नियतदेशादिस्थित वस्तुग्राहि सविकल्प प्रत्यक्ष की स्थापना ] नैयायिकादि निर्विकल्प प्रत्यक्ष मानते हैं किन्तु उसे प्रमाण / अप्रमाण नहीं मानते। सिर्फ सविकल्प प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं। उन का विमर्श यह है कि वाणी चाक्षुषप्रतीति का विषय नहीं है इस लिये वाक्- संकलित अर्थदर्शन प्रत्यक्ष नहीं हो सकता यह ठीक है। किन्तु, द्रव्य-गुण-क्रिया आदि तो चाक्षुषप्रत्यक्ष के विषयक्षेत्र में ही है, इस लिये जलद्रव्य विशिष्ट घटादि अर्थ की प्रत्यक्षप्रतीति 15 सविकल्प हो सकती है। देखिये ज्ञान का प्रयोजन व्यवहार है, कोई भी चीज वस्तु अमुक देश अमुक स्थल में दिखाई देने पर ही तद्विषयक प्राप्ति- परिहारात्मक व्यवहार में वह उपयोगी बनती है । देशादिविशिष्ट स्वरूप से न दिखाई देने पर उस का कोई उपयोग नहीं रहता । यह हकीकत है कि किसी भी पदार्थ का देशादिसंसर्गरहितरूप से अनुभव कभी भी नहीं होता । शब्दाकार (यानी नाम ) के उल्लेख विना भी देशादिसंसृष्टरूप से वस्तु का संकलन करने वाली प्रत्यक्ष प्रतीति को ही 'सविकल्प' 20 कहा जाता है । सविकल्प यानी कल्पनागर्भित ज्ञान । कल्पना कोई मिथ्याज्ञान नहीं है, विशेषण- विशेष्यभाव से गुण- गुणी आदि की प्रतीति को ही कल्पना कहते हैं। जैसे नीलादि विशेषण उत्पलादि के व्यावर्त्तकरूप में नीलोत्पलबुद्धि में भासित होता है वैसे ही 'यहाँ घट है' इत्यादिरूप में एतद् देशादि भी घटादि के अन्यदेशीयघटादिव्यावृत्तरूप में अनुभव के प्रयोजक होते हैं, इस प्रकार सविकल्प प्रत्यक्ष में देशादि का भान भी होता है । यहाँ हमारे मत में शब्दसंयोजनापक्ष में पूर्वदर्शितदोषवृन्द को कतई अवकाश 25 नहीं है। 10 १२८ [ नियतदेशादिविशेषण- विशेष्यभाव का प्रत्यक्ष असंभव ] नैयायिकों का यह प्रतिपादन गलत है । कारण यह है कि प्रत्यक्ष तो पुरोवर्त्तीि सन्निकृष्ट नीलादि के अवलोकन करने में ही सक्षम होता है इस तथ्य को तो आप भी मानते हैं । भूतल तो विशाल है, पूरा भूतल तो घट से आक्रान्त नहीं है, कुछ आक्रान्त है कुछ अनाक्रान्त है । आक्रान्त भूतलभाग 30 जो कि घट का आधार माना जाता है वह तो घट से आवृत होने से उस के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष शक्य नहीं है, तब इन्द्रियप्रत्यक्ष कैसे उस का आधार के रूप में (यानी आधारतया विशेषण के रूप में) ग्रहण करेगा ? जब घटप्रत्यक्षकाल में आधारभूत भूतल का ग्रहण ही नहीं हो सकता तो उस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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