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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १२७ भवति, बोधरूपता(?त्वात्), वर्णपदाद्यनुक्रमलक्षणत्वाद् वाचः, न तद्युक्ता प्रतिपत्तिर्विकल्पिका, अपि तु निर्विकल्पिकैव, श्रुति-स्मृतिविषयवर्णपदानुक्रमोल्लेखशून्यत्वात्। यदि चाविकल्पकं संवेदनं किञ्चिन्नाभ्युपेयते तदा वाक्संस्मरणाऽसंभवाद् विकल्पस्याप्यसंभव एव स्यात् । अथ प्रथमं संवेदनं तदा वाचकस्मृतेरभावादविकल्पकम् तज्जनितवाचकस्मृतिसहकारीन्द्रियप्रभवं त्वभिधानानुरक्तार्थावभासि द्वितीयं सविकल्पकम्। नैतदस्ति, यतः स्मृतिसचिवमपि लोचनं न वाचके 5 तत्संकेतसमयभाविनि प्रवृतिमदिति कथं तदविषये स्मृतिदर्शितेऽपि वाचकानुषक्तेऽध्यक्षप्रवृत्तिः ? यतो न गन्धस्मृतिसहकारिलोचनमविषये परिमलादौ संवेदनं जनयद् दृष्टम् किन्तु संनिहित एव मलयजरूपे, दर्शनं तु तत्सहचारिणि परिमलादौ स्मृतिं जनयतीति न तत् तद्रूपसंविदो रूपं हेतुविषयभेदात्। तथाऽत्रापि नयनसंवेदनं रूपमात्रसाक्षात्कारि भिन्नम् तद्दर्शनोपजनितं तु विकल्पज्ञानं वचनपरीतार्थाध्यवसायस्वभावं भिन्नमेवेत्यविकल्पकमध्यक्षं सिद्धम्। 10 वाक् भी चाक्षुष बोध में भासित नहीं हो सकती। (सूक्ष्मा भी बोधजनक शक्तिरूप होने से चाक्षुष विषय नहीं है।) निष्कर्ष, चाक्षुषादि संवेदन वागाश्लिष्ट सविकल्प रूप नहीं, निर्विकल्प ही होता है, क्योंकि श्रुति और स्मृति के विषय से एवं वर्ण-पद आदि अनुक्रम के उल्लेख से विनिर्मुक्त होता है। [ निर्विकल्प के विना वाक्संस्मरण और विकल्प का असम्भव ] यदि निर्विकल्प संवेदन का समूल निषेध करेंगे तो वाणी का स्मरण संभवहीन हो जानेसे सविकल्प 15 संवेदन भी संभवविकल बन जायेगा। यदि कहें कि – “वाणीसंवेदन के पहले एक अर्थसंवेदन का स्वीकार करेंगे, उसे तो निर्विकल्प ही मानना पडेगा क्योंकि उसके पहले कोई वाचक स्मृति सम्भवित ही नहीं है। (विना अनुभव स्मृति नहीं होती।) फिर उस निर्विकल्प से वाचक की स्मृति होने पर स्मृतिसहकृत इन्द्रिय से जो अनुभव होगा वह जरूर शब्दसंश्लिष्ट होने से दूसरा प्रत्यक्ष सविकल्प होगा। इस तरह इन्द्रिय से सविकल्प प्रत्यक्ष उत्पन्न हो सकता है।” – तो यह ठीक नहीं है। हमारा कहना यह है कि 20 इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष कभी भी शब्दग्राहक नहीं होता और जो शब्दग्राही होगा वह इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष नहीं होगा। कैसे यह देखिये - स्मृति का सहकार मिलने पर भी अर्थसूचक संकेतकाल में जिस शब्द में (वाचक में) संकेत किया गया था उस को ग्रहण करने में (श्रोत्रप्रवृत्ति होने पर भी) लोचन की प्रवृत्ति शक्य नहीं थी, क्योंकि शब्द लोचन का विषय नहीं है। जब शब्द उस का विषय ही नहीं है तब स्मृतिप्रदर्शित शब्दोपरक्त वस्तु के ग्रहण में लोचनजन्य प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति कैसे मानी जाय ? ऐसा तो 25 कभी नहीं होता कि सुगन्ध के उत्कट स्मरण का सहकार मिल जाने से अपने विषयक्षेत्र को लाँघ कर लोचन परिमल आदि का संवेदन करने का साहस करे। हाँ इतना मान सकते हैं कि संनिहित चन्दन का ग्राहक प्रत्यक्ष चन्दनसहचरित परिमलादि का स्मरण करा देगा। चन्दनरूपसंवेदी प्रत्यक्ष का चन्दनपरिमलग्राहि कोई स्वरूप ही नहीं है, क्योंकि स्मृति और प्रत्यक्ष के कारक हेतु एवं अपना अपना विषयक्षेत्र पृथक ही है। इसी तरह, समझ लो कि रूपमात्रप्रेक्षी चाक्षुष संवेदन पृथक् ही है और उस से उत्पन्न स्मृति 30 आदि विकल्प ज्ञान भी अलग है जो कि शब्दसंश्लिष्ट अर्थाध्यवसायी होता है। सारांश, प्रत्यक्ष प्रमाण निर्विकल्प ही होता है यह सिद्ध हुआ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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