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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
श्रोत्रग्राह्यां वैखरीं वाचं न तावन्नयनजसंवेदनमुपस्पृशति, तस्याः तदविषयत्वात् । नापि स्मृतिविषयां मध्यमां तामवगमयति, तामन्तरेणापि शुद्धसंविदो भावात् । संहृताशेषवर्णादिविभागा पश्यन्ती वागेव न
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पश्यन्ती वाक् : जिस में वाच्य वाचक का विभाग नहीं दीखता, क्रमविवर्त्तशक्ति के रहते हुए जिस में सजातीय- विजातीयापेक्षया वाच्य वाचकों का दैशिक या कालिक क्रम नहीं होता ऐसी मानसबोधरूप वाणी को पश्यन्तीवाक् कहते हैं ।
मध्यमा वाक् :- सिर्फ बुद्धि ही इस का उपादान होती है, प्राणवृत्ति जिस में हेतु नहीं है, जिस में वाचक- वाच्य का क्रम रहता है, जो मनोभूमि में रहती है, श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होती ऐसी 10 अन्तर्जल्पाकार वाणी को मध्यमा वाक् कहते हैं । वैखरी और पश्यन्ती के बीच में रहने से इस का नाम मध्यमा है।
सूक्ष्म वाक्: जिस में कालभेद के स्पर्शरूप कोई अपाय नहीं होता ऐसी स्वप्रकाश शक्ति को सूक्ष्म वाक् कहा जाता है।
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वैखरी वाक्:- तालु आदि स्थानों में वायु के आहत होने से वर्णाकार धारण करनेवाली श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य अकारादिवर्णात्मक वाणी को वैखरी कहते हैं। विशिष्ट खरावस्था यानी स्पष्टावस्थावाली होने से उसे वैखरी कहते हैं ।
इन में से एक भी वाक् अर्थसंवेदन में भासित नहीं होती । वैखरी वाणी तो श्रोत्र का विषय है, चक्षु की वहाँ कोई पहुँच नहीं है, इसलिये चाक्षुषसंवदेन में वैखरी वाणी का स्पर्श सम्भव नहीं है । जो सिर्फ स्मृति का विषय बनती है ऐसी मध्यमा वाक् भी चाक्षुषदर्शन में भासती नहीं है। मध्यमा वाक् के विना भी शुद्ध चाक्षुष बोध का संवेदन होता है। जिस में वाच्य - वाचक इत्यादि किसी भी वर्णादि का विभाग विलीन है ऐसी पश्यन्ती वाणी को 'वाणी' कहना ही अनुचित है क्योंकि 20 वह तो बोधात्मक है। वाणी तो हरहमेश वर्ण-पद-वाक्यादि क्रमगर्भित ही होती है । इस लिये पश्यन्ती
4. साचेयं वाक् त्रैविध्येन व्यवस्थिता वैखरी, मध्यमा पश्यन्तीति । तत्र येयं स्थान-करण - प्रयत्नक्रमव्यज्यमाना अकारादिवर्णसमुदायात्मिका वाक् सा वैखरीत्युच्यते । तदुक्तम्- स्थानेषु विधृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा । वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना ।।
अस्यार्थः- स्थानेष्विति ताल्वादिस्थानेषु वायौ = प्राणसंज्ञे विधृते = अभिघातार्थं निरुद्धे सति कृतवर्णपरिग्रहेति हेतुद्वारेण विशेषणम् ततः ककारादिवर्णरूपस्वीकारात् वैखरीसंज्ञा वक्तृभिर्विशिष्टायां खरावस्थायां स्पष्टरूपायां भवा वैखरीति निरुक्तेः वाक् प्रयोक्तॄणां सम्बन्धिनी, यथा तेषां स्थानेषु तस्याश्च प्राणवृत्तिरेव निबन्धनम् तत्रैव निबद्धा सा तन्मयत्वादिति ।
या पुनरन्तः संकल्प्यमाना क्रमवती श्रोत्रग्राह्यवर्णरूपाभिव्यक्तिरहिता वाक् सा मध्यमेत्युच्यते। तदुक्तम्केवलं बुद्ध्युपादानात् क्रमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्त्तते । ।
अस्यार्थः- स्थूलां प्राणवृत्तिं हेतुत्वेन वैखरीवदनपेक्ष्य केवलं बुद्धिरेवोपादानं हेतुर्यस्याः सा प्राणस्थत्वात् क्रमरूपमनुपतति अस्याश्च मनोभूमाववस्थानम्, वैखरी- पश्यन्त्योर्मध्ये भावाद् मध्यमा वागिति । या तु ग्राह्यभेदक्रमादिरहिता स्वप्रकाशा संविद्रूपा वाक् सा पश्यन्तीत्युच्यते । तदुक्तम् - अविभागा तु पश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमा । स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी ।।
अस्यार्थः पश्यन्ती यस्यां वाच्यवाचकयोर्विभागेनावभासो नास्ति सर्वतश्च सजातीय- विजातीयापेक्षया संहृतो वाच्यानां वाचकानां चक्रमो देशकालकृतो यत्र क्रमविवर्त्तशक्तिस्तु विद्यते । स्वरूपज्योतिः स्वप्रकाशा वेद्यते वेदकभेदातिक्रमात् सूक्ष्मा दुर्लक्ष्या अनपायिनी कालभेदाऽस्पर्शादिति । [ वाक्यपदीयटीका- स्याद्वादरत्नाकरादिग्रन्थेषु इति भूतपूर्वसम्पादकौ]
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