________________
१२५
खण्ड-४, गाथा-१ वागनुषक्तार्थदर्शनमित्यर्थदर्शनाभावो भवेत्, ततोऽर्थदर्शनानिर्विकल्पकमेव तदभ्युपगन्तव्यम्।
यदि च वाक्संसृष्टस्यैवार्थस्य ग्रहणं तदाऽगृहीतसंकेतस्य बालकस्य तद्ग्रहणं न भवेत् । अथ तस्यापि 'किम्' इति वागुल्लेखोऽस्तीति तदनुषक्ततद्ग्रहणं सविकल्पकम्। नैतद् युक्तम्, तस्य 'किमपि' इति सामान्यस्यैव ग्रहणं भवेन्न विशेषस्येति न विशदावभास्यर्थसंवेदनसम्भवः । यदा चाश्वं विकल्पयतो गोदर्शनं परिणमति तदा तद्वागपरिच्छेदात् कथमवबोधस्य शाश्वती वाग्रूपता ? न हि तदा गोशब्दोल्लेखस्तदवबोधस्य 5 संभवति तत्संवेदनाभावात् युगपद्विकल्पद्वयानुत्पत्तेश्च । ततोऽध्यक्षमर्थसाक्षात्करणान्न वाग्योजनामुपस्पृशतीति निराकृतं “वाग्रूपता चेद् व्युत्क्रामेद्” (वाक्यपदीय.) इत्यादि, लोचनाद्यध्यक्षे वाक्संस्पर्शायोगात् । यतः शब्दोपरक्त स्मृति होगी तभी उस में शब्दोपरक्त रूपादिअर्थ का दर्शन होगा, स्वतन्त्ररूप से नहीं होगा। कारण, कोई भी दृष्टा शब्दोपरागविकल अर्थ का तो संवेदन ही नहीं कर पाता। इस का मतलब यह हुआ कि अर्थदर्शन के विना वाक्स्मरण नहीं होगा, इस प्रकार वास्मरण का सम्भव न होने 10 से, वाक्स्मरण के विना शब्दोपरक्त अर्थ दर्शन भी नहीं होगा। आखिर अर्थदर्शन भी खोया न ! शब्दोपराग मानने पर तो अर्थदर्शन को ही खोना पडेगा, इस के बदले यही मान लेना अच्छा है कि अर्थमात्र का ही दर्शन होने से वह निर्विकल्प ही होता है।
[बालक में संकेतित अर्थ-आश्लेष की अनुपपत्ति ] बौद्ध कहता है - वाणीआश्लिष्ट ही अर्थ का ग्रहण सदैव माना जाय तो जिस बालक को 15 अभी तक शाब्दिक संकेतार्थों का व्युत्पादन नहीं हुआ है उसको वाणी-आश्लिष्टता के विरह में अर्थ का भी भान नहीं होगा। यदि कहें कि - ‘बालक को विशिष्ट संकेतों का अवबोध न होने पर भी 'कुछ है' इस प्रकार की वाणी के उल्लेख से आश्लिष्ट घटादि अर्थों का सविकल्प बोध होगा'
तो यह संगत नहीं है. क्योंकि इस प्रकार तो बालक को सदैव सामान्यबोध ही होगा. विशेषरूप से अर्थबोध नहीं होने से बालक को स्पष्टरूप से अनुभवारूढ ऐसा अर्थसंवेदन असम्भव ही रहेगा। 20
दूसरी बात - 'अश्व है' इस प्रकार शब्दसंश्लेषवाले अश्व के सविकल्प बोध काल में गो-चक्षुः संनिकर्षप्रयुक्त गोपदार्थदर्शन उदय प्राप्त कर लेगा – उस समय वह गोदर्शन न तो 'अश्व' शब्दाश्लिष्ट हो सकता है न ‘गो' शब्दाश्लिष्ट होगा, इस प्रकार वाग्विनिर्मुक्त ही गोदर्शन उदय पायेगा, अब बोध की शाश्वत वाग्रूपता कहाँ रही ? गो शब्द का उल्लेख उस काल में इस लिये असंभव है क्योंकि उस काल में अश्व का ही संवेदन हो रहा है. उस के साथ साथ 'गो' ऐसा शब्दोल्लेखवाला संवेदन 25 अशक्य है क्योंकि एकसाथ विकल्पद्वय की उत्पत्ति शक्य नहीं है। निष्कर्ष, अर्थसाक्षात्कारसंवेदी प्रत्यक्ष वाक्संयोजन का स्पर्श नहीं करता यह साबित होता है। अत एव 'यदि बोध वाग्रूपता विनिर्मुक्त होगा तो प्रकाश नहीं प्रकाशेगा' (वाक्यपदीय.) यह कथन भी निरस्त हो गया, क्योंकि चाक्षुषप्रत्यक्ष में वाक्संस्पर्श का संवेदन नहीं होता।
[ वैखरी-मध्यमा-पश्यन्ती-परा वाक्चतुर्भेद ] __वाक्यपदीयग्रन्थकार आदि व्याकरणविदोंने वाणी के वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा (परा) ये चार भेद माने हैं। इन में से एक भी प्रकार बोधसंलग्न हो कर नहीं भासता ।
20
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org