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________________ १२४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विशेषणत्वं रूपादेश्च विशेष्यत्वम्, यतो यदि तदनुरक्तता तत्प्रतिभासस्तदा शब्दस्याक्षबुद्धावप्रतिभासनान्न तदनुरक्तता। अथ रूपादिदेशे शब्दवेदनं तदनुरक्तता, तदपि न युक्तम्, निरस्तशब्दसन्निधीनां रूपादीनां स्वज्ञाने प्रतिभासनात्। अथ तत्कालशब्दप्रतिभासस्तदनुरागः, न; नयनदृशि रूपादिव्यतिरिक्तशब्दप्रतिभासाभावात् । यतो न 5 तुल्यकालमपि शब्दं लोचनसंविद् अवभासयितुं क्षमा तस्य तदविषयत्वात् । अथ शब्दानुषक्तरूपस्मृतिदर्शनात् तद्रूपस्य तस्य प्राग्दर्शनमुपेयते तर्हि शब्दविविक्तमर्थरूपं प्रत्यक्षमधिगच्छति वाचकं तु स्मृतिरुल्लिखतीति न तत्संस्पर्शमध्यक्षमनुभवतीति निर्विकल्पकमासक्तम्। अन्यथा शब्दस्मरणाऽसम्भवादध्यक्षाभावो भवेत् । तथाहि- यदि वाक्संस्पृष्टस्य सकलार्थस्य संवेदनं तथासत्यर्थदर्शने तद्वाक्स्मृतिस्तत्र च तत्परिकरितार्थदर्शनम न च कश्चिद् वाक्संस्पर्शविकलमर्थमवगच्छति तमन्तरेण च न वाक्स्मृतिः तां चान्तरेण न 10 यदि कहा जाय – 'रूपादिविषयक प्रत्यक्ष बुद्धि जब उदित होती है तब शब्दाकार से उपरक्त हो कर ही उत्पन्न होती है, अत एव मानते हैं कि शब्द वहाँ विशेषण है और रूपादि अर्थ विशेष्य है।' – तो यह ठीक नहीं क्योंकि 'उपरक्तता' शब्द का अर्थ क्या है यह स्पष्ट नहीं। उपरक्तता का अर्थ शब्दप्रतिभास किया जाय तो वह गलत है क्योंकि रूपादि प्रत्यक्ष मति में शब्द का उपरञ्जन यानी प्रतिभास होता ही नहीं है, इस लिये रूपादि अर्थ में शब्द की उपरक्तता का कथन अयुक्त 15 है। 'रूपादि अर्थदेश में शब्द का भी संवेदन करना' ऐसा उपरक्तता का अर्थ भी गलत है, क्योंकि अपने दर्शन में भासने वाले रूपादि अर्थ शब्दसंनिधान से अस्पृष्ट ही भासता है। 'रूपादि अर्थ प्रतिभासकाल में ही साथ साथ शब्द का भी प्रतिभास होना' ऐसा उपराग का अर्थ भी असंगत है क्योंकि चाक्षुषदर्शन काल में रूपादि अर्थ से अतिरिक्त किसी शब्द का प्रतिभास होता ही नहीं। शब्द समानकालीन हो फिर भी चाक्षुषसंवेदन का यह सामर्थ्य नहीं है कि वह समानकालीन 20 होने मात्र से शब्द को प्रदर्शित करे। कारण, शब्द चाक्षुषबुद्धि का विषय ही नहीं है। [स्मृतिगत उपराग से दर्शन के उपराग की सिद्धि अशक्य ] ___ यदि कहें कि - 'कुछ काल के बाद जब रूपस्मरण होता है तब शब्द से उपरक्त रूप का ही स्मरण होता है. इस से यह साबित होता है कि कुछ समय पहले जब रूप दर्शन हुआ था तब शब्द से उपरक्त ही हुआ था।' - तो यहाँ ऐसा ही मानना होगा कि प्रत्यक्ष में तो सिर्फ शब्दविनिर्मुक्त 25 रूपादि अर्थ का ही अधिगम हुआ है, लेकिन स्मृतिकाल में स्मृति ही रूपादिअर्थवाचक शब्द को जोड कर उदित होती है। (अनुभवकाल में शब्दोपरक्त रूपादिसंवेदन था इसलिये शब्दोपरक्त रूपादि का स्मरण हुआ ऐसा मान लेने की जरूरत नहीं। स्मृति स्वयं ही अपनी ओर से रूपादि के साथ वाचक शब्द को जोड कर उदित हो सकती है।) मतलब यह हुआ कि प्रत्यक्ष तो वाचक शब्द का स्पर्शानुभव नहीं करता, यानी वह बिलकुल निर्विकल्प स्वभाव ही होता है। ऐसा यदि नहीं मानेंगे तो यथा तथा 30 शब्द का स्मरण ही संभवित न होने से प्रत्यक्ष का भी शून्यभाव प्रसक्त होगा। कैसे यह देखिये - यदि सभी अर्थों का संवेदन शब्दोपरक्त ही संभव है तो इस स्थिति में अर्थदर्शन होने पर ही उसके वाचक शब्द का स्मरण हो सकता है, स्वतन्त्ररूप से शब्द की स्मृति हो नहीं पायेगी। जब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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