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खण्ड-४, गाथा-१
१२३ वाग्रूपतापन्नाः पदार्था गृोरन्, 'भिन्नवाग्रूपताविशेषणविशिष्टा वा ? प्रथमपक्षे लोचनं वाग्रूपतायां न प्रभवतीति तदनुसारिण्यध्यक्षमतिरपि न तत्र प्रवृत्तिमती, ततः कथमसावर्थरूपापन्नां वाग्रूपतामधिगन्तुं क्षमा ? इत्यन्यैवाक्षमतिर्नामोल्लेखात् । अथ "द्वितीय पक्षः, तदापि नयनदृग् तद्विषये शुद्ध एव पुरोव्यवस्थिते प्रवर्त्तते न वाचि, तत्र चाऽवर्तमाना कथं तद्विशिष्टं स्वविषयमुद्द्योतयितुं समर्था ? न हि विशेषणं भिन्नमनवभासयन्ती तद्विशिष्टतया विशेष्यमवभासयति दण्डाग्रहण इव दण्डिनम्।
न च यद्यपि वाग् दृशि न प्रतिभाति तथापि स्मृतौ प्रतिभातीति विशेषणमर्थस्य, भिन्नज्ञानग्राह्यस्यापि विशेषणत्वोपपत्तेरिति वक्तुं शक्यम्, संविदन्तरप्रतीतस्य स्वातन्त्र्येण प्रतिभासनाद् तदनन्तरप्रतीयमानविशेषणत्वानुपपत्तिः। यतो नैककालमनेककालं वा शब्दस्वरूपं स्वतन्त्रतया स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमानं विशेषणभावं प्रतिपद्यते, सर्वत्र तस्य तद्भावापत्तेः। न च शब्दानुरक्तरूपाद्यध्यक्षमतिरुदेतीति शब्दस्य होते हैं - ऐसा बोध वाग्रपताअभिन्न पदार्थ का प्रकाशन करता है या bभिन्न वाग्रपता ।
वापता विशेषण से 10 विशिष्ट पदार्थ का प्रकाशन करता है ? प्रथम पक्ष में, चक्षु की वाग्रूपता की पहिचान में शक्ति ही नहीं है, अतः स्तम्भादि पदार्थग्राहक चक्षुजन्य प्रत्यक्षबुद्धि वाग्रूपता के उल्लेख की प्रवृत्ति कर नहीं सकती। जब वह अर्थाभिन्न वाग्रपता के ग्रहण में सक्षम नहीं है तो मानना होगा कि अर्थ-वाणी अभेद सचक 'यह रूप हैं' वह इन्द्रिय बुद्धि कोई अन्य प्रकार की ही है क्योंकि वह अर्थ के साथ नाम का भी उल्लेख करती है। मतलब, चक्षुजन्य प्रत्यक्षबुद्धि (दर्शन या निर्विकल्पक) अलग ही है और यह रूप 15 है' यह विकल्प अलग ही है। दूसरे पक्ष में, वायूपता विशेषण जब भिन्न ही प्रतीत होता है तब तो स्पष्ट है कि चक्षुजन्यप्रत्यक्ष अपने पुरोवर्ती शुद्ध (नामादिविकल) विषय के ही ग्रहण में प्रवृत्त है न कि वाणी के ग्रहण में। शुद्धविषयग्रहण व्यग्र बुद्धि जब वाणीग्रहण में अप्रवृत्त है तब पृथक्वाग्रूपता (जो कि स्व से अगृहीत है) से विशिष्ट अपने विषय का प्रकाशन करने में वह कैसे साहस करेगी ? ऐसा होता नहीं कि विशेषण को पृथग्रूप से ग्रहण न करनेवाली बुद्धि विशेषणविशिष्ट विशेष्य का 20 प्रकाशन कर सके। दण्ड का पृथग् ग्रहण न करने वाली बुद्धि ‘डंडेवाले' को भासित नहीं कर सकती।
[भिन्नज्ञानग्राह्य अर्थ विशेषण नहीं बनता ] यदि कहें कि - दर्शन में वाक् का भान नहीं होता यह सच है लेकिन स्मृति में तो वाक् का भान होता है, इस प्रकार वाक् स्मृतिज्ञात हो कर दर्शनगृहीत अर्थ का विशेषण क्यों नहीं बन सकती। भिन्नज्ञान से गृहीत अर्थ का भी वाक् विशेषण बन सकती है। - तो यह अशक्यवचन 25 है क्योंकि पहले संवेदन में स्वतन्त्ररूप से ही (वाक्विनिर्मुक्त) अर्थ भासित हो गया, अब उस के बाद स्मृति में भासमान वाक् उस का विशेषण कैसे बन सकती है ? शब्दाकार चाहे अर्थसंवेदन के समानकाल में या असमानकाल में अपने ग्राहक ज्ञान (स्मृति) में जब स्वतन्त्ररूप से (न कि किसी के विशेषणरूप में) भासित होता है, वह अब किसी के 'विशेषण' रूप में भासित नहीं हो सकता। यदि भिन्नज्ञानगृहीत किसी अर्थ के विशेषणरूप में वाक् का भासित होना मान लिया जाय तो समकालीन भासमान सकल 30 अर्थों के या असमानकालीन भासमान सभी अर्थों के विशेषणरूप में भासित होने की आपत्ति होगी; मतलब स्वतन्त्र यानी निर्विशेषण विशेष्यरूप से तो उसका भान लुप्त हो जायेगा।
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