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________________ १२२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विफलतामनुभवेत्। ततः सकलमक्षवेदनं वाचकविकलं स्वविषयमेवावलोकयतीति निर्विकल्पकम् । न चार्थसंनिधानाद् वाचः संनिधावप्यक्षान्तरवैफल्यप्रसक्तेः लोचनमतौ यदि नाम न शब्दसंनिधिजनिता शब्दाकारता, तथाप्युपादानाद् बोधरूपतेव वाग्रूपतापि वाचकस्मृतिजनिता तत्र भविष्यति; - यतो यदि स्मरणजनितो वाग्रूपतोल्लेखस्तदा स्पष्टलोचनप्रभवदृशो भिन्न एव भवेत् कारण-विषयभेदात् । तथाहि5 लोचनव्यापारानुसारिणी दृग् वर्तमानकालं रूपमात्रं विशदतयाऽवभासयति विकल्पस्तु शब्दस्मरणप्रभवोऽसन्निहितां वाग्रूपतामध्यवस्यति, कथं न हेतुविषयभेदात् तयोर्भेदः ? अथ वाक्परिष्वक्तं रूपमधिगच्छद् ‘रूपमिदम्' इत्येकं संवेदनमध्यवस्यति जन इति कथं न तयोरैक्यम् ? नैतत्, यतः 'रूपमिदम्' इति ज्ञानेन [एक इन्द्रिय से सर्वेन्द्रियगम्य विषयग्रहण की आपत्ति ] यदि शब्द जैसा कोई पदार्थ मान्य है तो यह भी मान्य करो कि श्रवणेन्द्रिय ही शब्दपरिणाम 10 की ग्राहक है, लोचन की पहुँच तो सिर्फ रूप के विवर्त्त में ही सिमित है। ऐसा अमान्य करेंगे तो एक ही इन्द्रिय रूपादि पंचक के ग्रहण में उल्लसित बन जायेगी और शेष चार इन्द्रियों के बेकार हो जाने से ‘इन्द्रिय पाँच है' ऐसी मान्यता निरर्थक ठहरेगी। निष्कर्ष, कोई भी इन्द्रियजन्य संवेदन शब्दविनिर्मुक्त सिर्फ अपने विषयमात्र का ग्रहण करती है, इसी लिये शब्दविकल्परहित उस को निर्विकल्पकज्ञान कहते हैं। सिद्ध हुआ कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। 15 [चाक्षुषदर्शन और वागनुसंधान में भेद का उपपादन ] यदि कहा जाय – यह मान लिया कि यद्यपि अर्थसंनिधान से वाक्संनिधान को मान लेने पर अन्य इन्द्रियों की निष्फलता प्रसक्त होती है इस लिये चाक्षुष बुद्धि में शब्दसंनिधानप्रयुक्त शब्दाकारता नहीं होती। तथापि समनन्तरप्रत्ययरूप बोध वाणी का उपादानकारण ही है, उपादान और कार्य का अभेद होता ही है, अतः वाणी की बोधरूपता स्वीकृत ही है इसी तरह बोध के उदय के साथ 20 वाग्रूपता भी वाचकशब्द की स्मृति से उत्पन्न हो कर जूट जायेगी। - तो यह ठीक नहीं है - क्योंकि (यतो यदि...) जब वाग्रूपता का संधान स्मृतिजनित होगा तो वह चक्षुजन्य स्पष्ट दर्शन से पृथक् ही रहेगा, क्योंकि दर्शन का कारण चक्षु और वाग्रूपतासंधान का कारण स्मृति दोनों भिन्न हैं, एवं दर्शन का विषय घटादि है जब कि स्मृतिजन्य वाग्रूपताअनुसंधान का विषय (अथवा स्मृति का विषय) शब्द है, दोनों एक दूसरे से भिन्न होने से पृथक् पृथक् रहेंगे। 25 कैसे यह देखिये - चक्षुक्रिया से उत्पन्न दर्शन वर्तमानकालीन रूपमात्र को स्फुटरूप से भासित करता है, शब्दस्मृतिजनित जो नामादिविकल्प है वह असंनिहित वाग्रूपता को प्रगट करती है; इस प्रकार हेतुभेद और विषयभेद सिद्ध है तब बोध और वाणी एकरूप कैसे हो सकते हैं ? [ शब्दाश्लिष्ट बोधसंवेदन की अवास्तविकता ] यदि कहें कि - ‘चक्षु से होनेवाला बोध केवल विषय को ही उल्लिखित नहीं करता किन्तु 30 ‘यह रूप है' इस प्रकार वाणी से आश्लिष्ट संवेदन का ही अध्यवसाय लोग अनुभूत करते हैं। तो उन के ऐक्य का स्वीकार क्यों न कर ले ?' - ऐसा वास्तव में नहीं होता। दो प्रश्न यहाँ खडे A. 'वाचा' इत्यस्य ‘बोधरूपतेव' इत्यत्रान्वयो बोध्या। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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