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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १२१ तथाप्यभेदे न क्वचिद् भेदो भवेदित्यध्यक्षं शब्दविविक्तरूपादिविषयं न वाग्रूपतासंसृष्टम्, तत्र तस्या असन्निधानात्। व्यवहिताया अपि वाचः प्रतिभासे सकलव्यवहितभावपरम्परा प्रतिभासताम् अर्थसंनिधानेऽपि वा वाचो लोचनमतावर्थप्रतिभासे न तस्याः प्रतिभास: तदविषयत्वात्। न हि यो यदविषयः स संनिहितोऽपि तत्र प्रतिभाति यथाऽऽम्ररूपप्रतिपत्तौ तद्रस:, अविषयश्च लोचनबुद्धेः शब्द इति। लोचनबुद्धिर्वाऽर्थमनुसरन्ती 5 स्वविषयमेवावभासयति नेन्द्रियान्तरविषयं संनिहितमपि, यथा रसनसमुद्भवा मधुरादिप्रतिपत्तिः तदेव, न परिमलादिकम्। लोचनप्रभवप्रत्ययेनैव श्रुतिविषयशब्दप्रतिपत्तौ नयनबुद्धिरेव सर्वाक्षविषयग्राहिका इतीन्द्रियान्तरपरिकल्पनावैयर्थ्यम्। शब्दात्मकेऽपि पदार्थेऽभ्युपगम्यमाने श्रुतिरेव शब्दपरिणतिमधिगच्छति लोचनं च रूपविवर्त्त पर्येतीत्यभ्युपगन्तव्यम् अन्यथैकमेवाक्षं विषयपञ्चकं विषयीकरोतीति तत्राप्यक्षपञ्चककल्पना [ अर्थों की शब्दाकारता प्रमाणसिद्ध नहीं ] ऐसा नहीं है कि 'शब्द घटादिपदार्थात्मक ही है'। ऐसा होता तो शब्द घटादिरूप से भासता, नहीं भासता है। स्तम्भादि वस्तु चक्षु के सामने शब्दाकार अनाश्लिष्ट ही भासित होती है; शब्द भी अर्थविभिन्नस्वरूप से ही श्रोत्रज्ञान में स्फुरता है, इस लिये अर्थ और शब्द अभेदात्मा नहीं है। सर्वत्र प्रतीतिभेद से ही वस्तुभेद सिद्ध होता है और यहाँ अर्थ और शब्द की प्रतीति भिन्न भिन्न है। प्रतीतिभेद के स्पष्ट रहते हुए भी अभेद का आग्रह रखेंगे तो हस्ती-अश्वादि का भेद ही लुप्त हो जायेगा। निष्कर्ष, 15 प्रत्यक्षबोध शब्दविनिर्मुक्त रूपादिविषयक ही होता है न कि वाक्संश्लिष्ट - रूपादिविषयक, क्योंकि रूपादिअर्थदेश में वाक् का संनिधान ही नहीं है। [चाक्षुष प्रत्यक्ष में शब्द का भान असंभव ] वाग्रूपता संनिहित नहीं है, संनिहित योग्य वस्तु ही प्रत्यक्ष में भासित होती है। यदि असंनिहित वस्तु - वाग्रूपता प्रत्यक्ष में भासित हो सके तो जितने भी असंनिहित स्वर्ग-नरकादिपदार्थों का झमेला 20 है वह सब प्रत्यक्षगोचर बन जायेगा। सर्वविदित है कि वाणी को अर्थदेश में कदाचित् तुष्यतुदुर्जनन्याय से संनिहित मान लिया जाय तो भी प्रत्यक्ष अर्थबोध में उस का भान नहीं ही होता है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष का विषय ही नहीं होती। 'जिस का जो विषय नहीं है वह उस इन्द्रिय से संनिहित रहते हुये भी उस से भासित नहीं होता' यह नियम है। उदा० रस चक्षुइन्द्रिय का विषय न होने से आम के रूप के साथ उस का रस चक्षु से संनिहित होने पर भी चाक्षुषप्रत्यक्ष से रस भासित 25 नहीं होता। शब्द भी चाक्षुष प्रत्यक्ष का अविषय ही है अत एव चाक्षुष प्रत्यक्ष में शब्द भासित नहीं हो सकता। अथवा यह भी नियम है कि 'चाक्षुष बुद्धि अर्थ के प्रति प्रसरती हुई सिर्फ अपने विषय को ही स्पर्श करती है, अन्य इन्द्रिय के विषय को नहीं।' उदा० रसनेन्द्रिय द्वारा मधुरादिरस के आस्वाद में मधुरादि रस ही लक्षित होता है न कि सुगन्धादि । यदि चक्षुजन्य प्रत्यक्ष से श्रोत्रविषयभूत शब्द का अवगम स्वीकृत हो – तब तो चाक्षुष बोध से शेषइन्द्रिय गोचर वस्तु का बोध भी क्यों 30 न स्वीकारा जाय ? फिर एक चक्षु से ही सकल इन्द्रियगोचर भावों का ग्रहण हो जाने से शेष इन्द्रियों की कल्पना बेकार रह जायेगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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