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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ स्वयमेवाभ्युपगमप्राप्तेस्तद्विषयाऽतद्विषयबाधकपक्षोक्त(पृ.११४-पं.१)दोषस्याप्येवमभ्युपगच्छता स्वयमेवाङ्गीकरणात्। अथ न किञ्चित् शास्त्रादिना क्रियते केवलमलीकाभिमानोऽयं लोकस्य 'शास्त्रेण बाध्यबाधकभावाभावो ज्ञाप्यते तत्समारोपो वा व्यवच्छिद्यते' इति। ननु तदभिमानस्यालीकता तदभावेऽपि
तदध्यवसाय:, तथा चैतत्परिज्ञाने परमतमेवाभ्युपगतं भवेत् । अथ शास्त्राद्युपन्यासोऽपि नाभ्युपगम्यते तर्हि 5 ‘बाध्यत्वाऽयोगात्' (पृ.११३-पं.१) इत्यादिकं किमिति वक्तव्यम् ? 'तदपि नास्ति' इति चेत् ? उपलभ्य
मानस्य कथमसत्त्वम् ? ___ अथोपलभ्यते किन्तु स्वप्नोपलब्धसदृशं तत्। तथाहि- तद्वचनमपरमार्थसत् उपलभ्यमानत्वात् स्वप्नोपलभ्यमानवचोवदित्यतोऽनुमानात् तदसत्त्वम् । असदेतत्- पूर्वोपन्यस्तदोषानुबन्धात् पुनरपि 'स्वप्नोपलभ्यमानवत्' इत्युत्तराभिधाने चक्रकप्रसक्तिः। इति किञ्चिच्छास्त्रादिकमभ्युपगच्छता बाध्यबाधकभावा
* शास्त्रादि की सार्थकता या निरर्थकता * अगर आप कहें कि - 'शास्त्रादि से यह प्रदर्शित होता है कि बाह्यार्थवादियों को, बाध्य-बाधक जैसा कुछ भी न होने पर भी उन को 'है' ऐसा अभिमान होता है यह शास्त्रादि से ज्ञापित होता है। यही समारोपव्यवच्छेद है। उस के लिये शास्त्रादि सार्थक है।' - तो दूसरे शब्दों में आपने इसी
तथ्य का स्वीकार कर लिया कि बाधक (शास्त्रादि) से, ‘बाध्य ज्ञान को असत् अर्थ में ही 'सत्' 15 होने का अभिमान है' ऐसा प्रदर्शित होता है। तब जो पहले (पृ.११४-पं०१२) आपने ही दोष लगाया
था कि बाधक ‘बाध्यविषय विषयक' है या 'बाध्यभिन्नविषय विषयक' है... इत्यादि, वे दोष अब आपके मत में स्वीकारना पडेगा।
यदि कहें - शास्त्रादि कुछ भी नहीं कर सकता, सिर्फ लोगों का यह मिथ्याभिमान ही है कि “शास्त्र से 'यह बाध्य है यह उसका बाधक है' ऐसा बाध्य-बाधक भाव का अभाव प्रदर्शित किया 20 जाता है, अथवा बाध्यबाधक भाव के समारोप का व्यवच्छेद किया जाता है।” – तो यह आप का
अन्यों के मत का स्वीकार ही फलित हुआ क्योंकि उस अभिमान में मिथ्यात्व क्या चीज है इस प्रश्न के उत्तर में आप को बताना पडेगा कि बाध्य-बाधकभाव न होने पर भी उस का अध्यवसाय होता है यही अभिमान का मिथ्यात्व है। फलतः आप के उक्त कथन में अन्य मत का स्वीकार स्पष्ट है।
यदि कहें कि हम तो शास्त्रादि के प्रतिपादन को भी असत् ही मानते हैं। तो फिर ‘स्वप्नदृष्ट घटादि 25 बाधकविषय नहीं हैं क्योंकि उस में बाध्यत्व ही असंभव है' (पृ.११३-पं०९) इत्यादि प्रपञ्च किसके लिये ? वह भी यदि असत् है तो कैसे उपलब्ध होता है, जो उपलब्ध होता है वह असत् कैसे ?
* सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्व हेतु अव्यभिचारी * यदि कहा जाय – “जैसे स्वप्न में घटादि की उपलब्धि होती है वैसे ही उक्त प्रपञ्च उपलब्ध होता है, असत् होने पर भी। देखिये - शास्त्रादि (या अनुमान का) वचन (प्रतिपादन) परमार्थसत् 30 नहीं है, क्योंकि उपलब्ध होता है जैसे स्वप्न में श्रूयमाण पुरुषवचन। - इस अनुमान से शास्त्र वचन
भी असत् सिद्ध होते हैं।” - तो यह गलत है। यह अनुमान परमार्थसत्त्व को विषय करता है या नहीं करता ? साध्य अपरमार्थसत्त्व वास्तविक है या अवास्तविक ? इत्यादि विकल्पों के साथ जो दोष इस प्रकार के पूर्वोक्त अनुमान में दिखाये हैं वे सब यहाँ भी अवतरित होंगे ... यावत् ‘स्वप्न
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