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खण्ड-४, गाथा-१
११५ निग्रह एव भवेदिति तदुपन्यासानर्थक्यम् । ‘समारोपव्यवच्छेदार्थं तदुपन्यास' इति चेत् ? बाध्य-बाधकभावाभावेऽपि तद्भावाध्यवसायसमारोपस्य व्यवच्छेदः स्वरूपापहारश्चेत् तमुभ्युपगम्यत एव बाध्य-बाधकभावः।
किञ्च, उदयकाले एव तदपहारे तदप्रतिभास इति न समारोपो नाम इति कस्य निवृत्त्यर्थः शास्त्राद्यारम्भः ? अन्यदापि स्वयमेव नाशान्न ततस्तन्निवृत्तिः। अथ शास्त्रादेः प्राक्तनसमारोपक्षणादुत्तरसमारोपक्षणजननाऽसमर्थः क्षण: समुपजायते इति तन्निवृत्तिः - तर्हि बाधकाद् बाध्यनिवृत्तिरपि तथैव 5 संपत्स्यत इति न बाध्य बाधकभावनिराकरणं युक्तिसंगतं स्यात्। न च 'बाध्य-बाधकाभावेऽपि परस्य तद्भावाभिमान इति शास्त्रादिना ज्ञाप्यते', 'असत्येवार्थे सदभिमानो बाध्यस्येति बाधकेन ज्ञाप्यते' इत्यस्य निरर्थकता जाहीर होगी। आप कहेंगे – 'अगर हम चुप रहेंगे तो निग्रह प्राप्त होगा - इस लिये हम प्रतिपादन करते हैं' - तो भी निग्रह नहीं टलेगा क्यों कि आपने अपने मत को सिद्ध करनेवाले साधन-अंग का तो प्रतिपादन ही नहीं किया। अतः असाधनाङ्गवचनरूप निग्रहस्थान प्राप्त हुआ। इस 10 तरह भी आप का प्रतिपादन व्यर्थ गया। यदि कहें कि – 'प्रतिपादन का प्रयोजन है बाध्य-बाधकभाव के अभाव का अनुसंधान ।' – तो प्रश्न होगा कि वह अनुसंधान यथार्थ है या नहीं ? यदि यथार्थ है तब तो अन्यदार्शनिकस्वीकृत बाध्य-बाधक भाव का बाधक बन जाने से उलटा बाधक स्वीकार हो जाने से अन्यों का मत सिद्ध हो गया। यदि वह अनुसन्धान अयथार्थ है तब तो पुनः आप का प्रतिपादन व्यर्थ गया। यदि कहें कि – प्रतिपादन तो समारोप के निरसन के लिये करते हैं - 15 तो उस का मतलब क्या ? बाध्य बाधकभाव वास्तव नहीं है, फिर भी उस भाव का अध्यवसाय होता है वह समारोप है, उस का आप उच्छेद करना चाहते हैं यानी क्या ? उस के स्वरूप का निरसन करना ही अभीष्ट है न, तो यही बाध हुआ। अर्थात् समारोपव्यवच्छेद के नामान्तर से आपने पुनः बाध्य-बाधकभाव मान्य कर लिया।
* समारोपव्यवच्छेद की अनुपपत्ति * यह भी सोचिये कि आपने समारोपव्यवच्छेद को स्वरूपहरणात्मक बताया तो समारोप के उदय होते ही तत्काल उस के स्वरूप का हरण हो जाने पर समारोप का प्रतिभास ही नहीं होगा, प्रतिभास के विना वह समारोप कैसा ? किस की निवृत्ति के लिये शास्त्रादिरचना का कष्ट करेंगे ? यदि कहें कि उदयकाल में नहीं किन्तु बाद में उस के स्वरूप का हरण शास्त्रादि से होगा, तो आशा व्यर्थ है क्योंकि वह तो बाद में शास्त्रादि उपदेश के विना भी स्वयं क्षणिक होने से निवृत्त होने 25 ही वाला है। इस लिये शास्त्रादि से उस की निवृत्ति अशक्य है।
यदि कहें कि - समारोप के स्वयंनाश के बाद उस सन्तान में जो अन्यक्षण उत्पन्न होगा वह समारोप से मुक्त ही रहे एतदर्थ शास्त्रोपदेश सफल होगा और समारोपमुक्त क्षणोद्भव यही शास्त्रोपदेश से समारोपनिवृत्ति कही जायेगी। - अच्छा, तो जैसे आप के मत में इस ढंग से समारोपनिवृत्ति होती है वैसे हमारे मत में भी बाध्य का बाधक से बाध (निवृत्ति) का मतलब है बाध्यज्ञान के 30
। ज्ञान समारोप(भ्रम)मक्त ही उत्पन्न होगा। अब तो बाध्य-बाधकभाव का आप खंडन करेंगे वह न्यायमुक्त नहीं कहा जायेगा।
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