SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ साध्यसाधनायालमिति न तद्बाधकं युक्तम् । न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरं सौगतस्याभीष्टं यत् तद्बाधकं भवेत्। अत: ‘सुनिश्चितासंभव'- इत्यादिहेतुः (पृ.१०७-५०६) नाऽसिद्धः । न चापरमार्थसति यथोक्तो हेतु: संभवीति नानैकान्तिकः। ___ अथ स्वप्नदृष्टे घटादावपरमार्थसति यथोक्तहेतोः सद्भावः इति कथं नानैकान्तिकः ? न च तत्र 5 बाधकप्रमाणविषयत्वम्, बाध्यत्वस्य क्वचिदप्यसम्भवात् । तथाहि- न तावद् बाधकेन ज्ञानस्य प्रतिभासकाले स्वरूपं बाध्यते, तस्य परिस्फुटेन रूपेण प्रतिभासनात् । नाप्युत्तरकालम्, क्षणिकत्वेन तदा तस्य स्वयमेवाभावात् । नापि तत्प्रमेयस्य प्रतिभासमानेन रूपेण स्वरूपं बाध्यते, प्रतिभासनादेव । न च प्रतिभासमानरूपसहचारिणा स्पर्शादिरूपेण, तस्य ततोऽन्यत्वात्। न चान्याभावेऽन्यस्याभावोऽतिप्रसङ्गात्। न च ज्ञानस्य ज्ञेयस्य वा * नीलादि में परमार्थसत्तासाधक हेतु बाधमुक्त * 10 निष्कर्ष, बौद्ध का परमार्थअसत्त्वसाधक अनुमान उस साध्य की सिद्धि के लिये अक्षम है क्योंकि साध्य के साथ दर्शनगोचरत्व हेतु की व्याप्ति अनुपलब्ध है। अत एव उस से, जैनोक्त नीलादि के परमार्थसत्त्व साधक अनुमान का बाध नहीं हो सकता। बौद्धमत में प्रत्यक्ष और अनुमान दो से ज्यादा अन्य प्रमाण ही मौजूद नहीं जो हमारे जैनों के प्रस्तुत अनुमान का बाध करे। आखिर हमने जो यह अनुमान कहा था (पृ.१०७-पं०२०) - जागृति में दिखनेवाला नीलादि परमार्थसत् है क्योंकि इसका 15 बाधक कोई सुनिश्चित प्रमाण संभवारूढ नहीं है - इस अनुमान का हेतु असिद्ध या बाधित नहीं है। साध्यद्रोही भी नहीं है, चूँकि अपरमार्थसत् में वह हेतु कभी नहीं घटता, अपरमार्थसत् खरविषाणादि का बाधक प्रमाण सुनिश्चित सुप्रसिद्ध है। * जैनोक्त हेतु सुनिश्चित ... इत्यादि में बौद्ध की आशंका * बौद्ध यदि कहता है – स्वप्नदृष्ट अपरमार्थसत् घटादि में आप का सुनिश्चित असंभव बाधकप्रमाणत्व 20 हेतु रहता है तो वह साध्यद्रोही क्यों नहीं ? उत्तर :- जैन की ओर से यदि कहा जाय कि सुनिश्चित बाधक प्रमाण का असंभव हेतु वहाँ स्वप्नदृष्ट घटादि में नहीं है अपि तु वहाँ बाधक (जागृतिकालीन प्रत्यक्ष) प्रमाण का विषयत्व ही रहता है - तो यह अमान्य है क्योंकि बाध्यत्व (एवं बाधकत्व) कहीं भी संभवित नहीं है। देखिये - स्वप्नादि ज्ञान प्रतिभासकाल में तो अतिस्पष्टरूप से घटादि का संवेदन ही होता है 25 अतः उस काल में कोई भी बाधक उस ज्ञान के स्वरूप का बाधन (= उपमर्दन) नहीं कर सकता। उत्तरकाल में तो वह स्वप्नज्ञान क्षणभंगुर होने से स्वयमेव मौजूद नहीं है फिर कौन उसका बाध करने आयेगा ? फलितार्थ- स्वप्नज्ञान का बाध असंभव है। यदि उस के विषय का बाध. यानी जिस रूप से वह भासित होता है उस रूप से उस का निषेध अन्य प्रमाण से हो - यह भी अशक्य है क्योंकि जो विषय भासित होता है उस को अभासित कौन कर सकता है ? यदि 'जिस रूपादि 30 (रक्तादिरूप) से वह भासित होता है उस से अन्य तत्सहचारी स्पर्शादिरूप से उस का निषेध यानी अभासन' इस प्रकार उस का बाध मानेंगे तो यह जूठा है क्योंकि रक्तादिरूप से स्पर्शादि भिन्न ही है, अतः स्पर्शादि के निषेध से रक्तादिरूप का निषेध नहीं हो सकता, जबरन मान लेंगे तो हस्ती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy