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खण्ड-४, गाथा-१ च तयोरेकत्र सहभावदर्शनात् सर्वत्र तथाभावः अन्यथेश्वराद्यनुमानमप्यविसंवादकं भवेत्।
अपि च, स्वापाद्यवस्थाभासिनो घटादेर्यदि परमार्थसत्त्वाभावो न गृह्यते कथं न साध्यविकलता दृष्टान्तस्य ? गृह्यते चेत् ? तस्य पारमार्थिकत्वे हेतोर्व्यभिचारस्तदवस्था, अपारमार्थिकत्वे दृष्टान्तः साध्यविकलः । अथ न सौगतेन तदभावो गृह्यते अपि तु बहिरर्थवादिनेति न पूर्वोक्तो दोषः । न, तेन प्रमाणेन तदभावग्रहणे सौगतेनापि तदग्रहणप्रसङगात. प्रमाणस्य क्वचित पक्षपाताऽसम्भवात. प्रमाणमन्तरेण ग्रहणे 5 न तेन हेतोर्व्याप्तिः, अभ्युपगममात्रसिद्धस्य व्यापकत्वाऽयोगात्; अन्यथा बौद्धाभिमतनाशादिना सुखादेरचेतनत्वसाधनं साङ्ख्यस्य किमित्ययुक्तं भवेत् ? तन्न प्रकृतमनुमानं साध्य-साधनयोर्व्याप्त्यग्रहणात् प्रकृतके प्रसञ्जन द्वारा पूर्वोक्त दोष प्रसक्त हैं। यदि सर्वदेशकालव्यापि व्याप्ति का ग्रहण नहीं मानेंगे तो अनुमान का अभाव से आत्मलाभ (उद्भव) निश्चित नहीं होगा। सिर्फ स्वप्नादि में अभाव-दर्शनगोचरत्व के सहभाव को देख कर सर्वत्र उन की व्याप्ति की कल्पना कर लेंगे तो घटादि में कर्तृत्व-कार्यत्व के सहभावदर्शन 10 से सर्वत्र व्याप्ति की कल्पना के द्वारा किये गये जगत्कर्ता ईश्वर का अनुमान भी अविसंवादी बन बैठेगा।
* दृष्टान्त में साध्यशून्यता या हेतु में साध्यद्रोह दोष * दूसरी बात यह है - स्वप्न में भासनेवाले घटादि, स्तम्भादि या तैमिरिक को भासनेवाले के - शोण्डुकादि जो दृष्टान्त है उन के पर दो विकल्प हैं कि उन की परमार्थसत्ता का अभाव (किसी प्रमाण से) गृहीत होता है या नहीं होता ? यदि गृहीत नहीं होता तब तो दृष्टान्त में वह असिद्ध 15 होने से दृष्टान्त ही साध्यविकल ठहरेगा। यदि वह प्रमाण से गृहीत होता है तब तो पारमार्थिक है तो हेतु अपरमार्थसत्त्वरूप साध्य के विरह में रह जाने से साध्यद्रोही ठहरा । यदि वह साध्य अपारमार्थिक है तो दृष्टान्त पनः साध्यविकल बन गया क्योंकि उस में प्रदर्शित परमार्थसत्ताअभाव रूप साध्य ही नहीं है।
यदि कहें कि - "स्वप्नभासित घटादि में बौद्ध को यद्यपि परमार्थसत्ताअभाव गृहीत नहीं होता 20 किन्तु बाह्यार्थवादीरूप प्रतिवादी को वह गृहीत होता है। अतः ‘गृहीत होता है और पारमार्थिक है तो' ....... इत्यादि दोष सौगत को लागु नहीं होते। (लाग होंगे तो बाह्यार्थवादी के सिर पर)" - तो यह भी अनुचित है क्योंकि प्रतिवादी यदि प्रमाण के आधार से बाह्यार्थ का अभावग्रह करता है तो प्रमाण के आधार पर वह सौगत को भी गहीत होना ही चाहिये. क्योंकि प्रमाण पक्षपाती नहीं होता कि वह चैत्र को अभावग्राहक बने और मैत्र को न बने। यदि प्रतिवादी को प्रमाण के 25 विना ही परमार्थसत्ताअभाव गृहीत होता है तो अप्रमाणसिद्ध अभाव के साथ स्वच्छदर्शनगोचरत्व हेतु की व्याप्ति कैसे बनेगी ? सिर्फ मान्यता (अप्रमाणिकमान्यता) से कल्पित पदार्थ में कहीं भी व्यापकत्व नहीं घट सकता।
यदि मान्यताकल्पित पदार्थ में व्यापकत्व स्वीकारेंगे तो बौद्धमान्य क्षणिकत्व (क्षणविनाशित्व) को हेतु कर के सुखादि में 'सुखादि अचेतन हैं क्योंकि क्षणिक है' इस अनुमान से सांख्यमतानुसार जडता 30 की सिद्धि भी युक्तिसंगत कहना पडेगा। A. तेन = बहिरर्थवादिना।
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