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________________ ११० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ __ किञ्च- समारोपविविक्तं भावान्तरं यदि भाविसमारोपानुत्पत्तिः तच्चानुमाने प्रतीयते परमार्थसच्च- पुनरपि हेतुस्तेनैव व्यभिचारी। अथ न परमार्थसन्न तर्हि तद्ग्राह्यनुमानं प्रमाणमिति कथं तस्य बाधकत्वम् ? न च तद्व्यवच्छेदकरणादनुमानं तद्बाधकमपि तु तदभावाऽविसंवादादिति वक्तव्यम् तदविषयस्य तदविसंवादकत्वायोगात्। 'तत आत्मलाभ एव तदविसंवाद' इति चेत् ? ननु तदात्मलाभोऽपि यद्यनुमानेनात्मनो 5 ज्ञायते पारमार्थिकश्च - पुनरप्यनेनैव हेतुर्व्यभिचारी, अपारमार्थिकश्चेत् ? न तद्विषयमनुमानं तद्बाधकम् । न च ‘स्वापादौ तदभाव-दर्शनावसेयत्वयोः प्रतिबन्धग्रहणादन्यत्रापि दर्शनावसेयत्वं तत्प्रतिबद्धं तज्जनितं चानुमानं पदार्थाभावजनितमिति सिद्धस्तत आत्मलाभोऽविसंवादः',- यतः साकल्येन प्रतिबन्धग्रहणे प्रतिबन्धस्य ग्राहकं तदासक्तं तत्र च पूर्वप्रतिपादित एव दोषः, तदग्रहणे च न तस्मादनुमानस्यात्मलाभनिश्चयः। न * स्वच्छदर्शनगोचरत्व हेतु में पुनः साध्यद्रोह दोष * 10 यदि कहा जाय - ‘भाविसमारोपानुत्पत्ति का मतलब भाविसमारोप उत्पत्ति का प्रतिबन्ध नहीं किन्तु उस से अतिरिक्त नया एक भाव ही है' – तो यहाँ भी पूर्ववत् विकल्प हैं कि यदि वह परमार्थ सत् हो कर अनुमान से द्योतित होता है तो वहाँ हेतु स्वच्छदर्शनगोचरत्व रहेगा और 'अपरमार्थसत्ता' साध्य वहाँ नहीं है अतः पुनः हेतु साध्यद्रोही ठहरेगा। यदि वह नया भाव परमार्थ सत् नहीं है तब असत्-अर्थग्राहक अनुमान अप्रमाण होने से पूर्वोक्तानुमान का बाधक कैसे होगा ? 15 यदि कहें कि - 'समारोपव्यवच्छेदक होने से अनुमान प्रमाण है ऐसा नहीं किन्त बाह्यार्थाभाव का अविसंवादी होने से वह पूर्वोक्तानुमान का बाधक होगा।' - तो यह गलत है, क्योंकि जो स्वयं नीलादि बाह्य को स्पर्श (= विषय) नहीं करता वह उस के अभाव का अविसंवादी कहा नहीं जा सकता। यदि कहें कि - ‘अविसंवाद का अर्थ है नीलाभाव से उत्थित होना, यानी अनुमान नीलाभाव 20 से उत्थित होने से नीलाभाव का ग्राहक बन कर नीलादिसाध्यक पूर्वोक्तानुमान का बाध करेगा।' – तो यह भी गलत है, क्योंकि यहाँ भी विकल्प हैं कि यदि ‘अनुमान तदुत्थित है' यह तथ्य परमार्थ सत् हो कर दूसरे किसी अनुमान से प्रतीत (सिद्ध) हो तब तो स्वच्छदर्शनगोचरत्व हेतु वहाँ रह जायेगा और अपारमार्थिकत्व साध्य नहीं रहेगा अतः हेतु साध्यद्रोही ठहरेगा। यदि वह तथ्य अपारमार्थिक है तो नीलादिअभावग्राहि अनुमान संवादी न होने से अन्य अनुमान का बाधक नहीं बनेगा। स्वच्छदर्शनगोचरत्व का स्वप्न में व्याप्तिग्रह निरर्थक * यदि कहा जाय- “स्वप्न में अश्वादि स्वच्छदर्शनगोचर है साथ में वहाँ स्वप्न में अश्वादिअभाव भी होता है - इसी से अभाव के साथ दर्शनगोचरत्व की व्याप्ति लब्ध होती है। अत एव नीलादि में भी वह दर्शनगोचरत्व नीलादि के अभाव से व्याप्त रहेगा, इस व्याप्ति से जन्य अनुमान भी नीलाभावजनित होने से, सिद्ध हो गया कि वह अनुमान अभाव से उत्थित है अत एव अभाव का 30 अविसंवादी है।” - तो यह गलत है। कारण, स्वप्न में अभाव और दर्शनगोचरत्व के साहचर्य ग्रहण के बाद सर्वदेशकालव्यापि व्याप्ति का ग्रहण आप अनुमान से ही मानेंगे। फलतः अनुमान सिर्फ अभावग्राही न रह कर भावात्मक व्याप्ति का ग्राहक भी बन गया। यहाँ पूर्वोक्त पारमार्थिक - अपारमार्थिक विकल्पों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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