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________________ खण्ड-४, गाथा-१ १०९ समारोपव्यवच्छेदकार्यनुमानं समारोपकारि प्रसक्तम्, न चैतद् युक्तम् कृतस्य करणायोगात्। द्वितीयपक्षे विनाशस्य सहेतुकत्वमनिष्टमासज्यते। किञ्च, असौ व्यवच्छेदोऽनुमानेन यदि प्रतीयते परमार्थसंश्च पुनरपि हेतोरनैकान्तिकत्वम्। 'न प्रतीयते' चेत् ? न त_नुमानेन समारोपव्यवच्छेदकरणम्, अन्यथाभूतस्य तस्य तेन करणाऽसम्भवात् । न च स्तम्भादिस्वरूपोऽपि समारोपव्यवच्छेदोऽनुमाने क्रियते, स्तम्भादेः स्वहेतुभ्य एवोत्पत्तेः । न चासावनुमान- 5 स्वरूप एव, तेनैव तस्य करणविरोधात्। न चानुमानसन्निधौ तदनुत्पत्तिरेव ततस्तद्व्यवच्छेदः, तत्रापि पूर्वोक्तदोषस्य (पृ.९३-पं०४) समानत्वात्। के अनुमान का बाधक नहीं मानते किन्तु प्रतिवादियों के परमार्थसत्त्वगोचर समारोप का उच्छेदकारी होने से बाधक मानते हैं। (यदि उस अनुमान को पारमार्थिक सत्ता अभाव का ग्राहक माने तब तो वह पारमार्थिक है या अपारमार्थिक इत्यादि प्रश्नजाल उपस्थित हो सकता है किन्तु हम तो अनुमान 10 को अर्थग्राहक नहीं सिर्फ समारोपव्यवच्छेदक ही मानते हैं अतः प्रत्यक्ष का वह बाधक हो सकेगा)' - तो यह कहना गलत है; क्योंकि यहाँ समारोप व्यवच्छेद ही असिद्ध है। बोलिये - समारोपव्यवच्छेद खुद समारोपात्मक है या असमारोपरूप है ? प्रथम पक्ष में अनुमान जो समारोपव्यवच्छेदकर्ता है वह खुद समारोपकर्ता बन जायेगा। समारोपकर्तृत्व भी अनुमान के लिये उचित तो नहीं होगा, क्योंकि समारोप तो पूर्वसिद्ध है, अब नया क्या करना है, पिष्टपेषण का कोई फायदा नहीं। दूसरे पक्ष में 15 असमारोपात्मक समारोपव्यवच्छेद ध्वंसात्मक होने से अनुमान ध्वंसहेतु बन जायेगा, फिर तो बौद्ध के मत में ध्वंस निर्हेतुक होता है वह असंगत हो जायेगा। * स्वच्छदर्शनगोचरत्व हेतु में साध्यद्रोह दोष * दूसरा दोष यह है कि यदि समारोपव्यवच्छेद परमार्थसत् रूप से अनुमानप्रतीत होगा तो स्वच्छदर्शनगोचरत्व हेतु परमार्थसत् के साथ बैठ जाने से साध्यद्रोही ठहरेगा। यदि वह अनुमान से 20 परमार्थसत् रूप से प्रतीत नहीं होता है तो वह अनुमान समारोपव्यवच्छेदकारी कैसे मान लिया जाय ? जो जिससे प्रतीत नहीं होता वह उस का निष्पादन कैसे कर सकता है ? यदि कहें कि – 'प्रत्यक्ष या अनुमान से गृहीत स्तम्भादि का प्रतिवादी को जो समारोप है उस का व्यवच्छेद ध्वंसात्मक नहीं किन्तु भावात्मक- स्तम्भादिरूप ही है' - तो अनुमान से उस का निष्पादन अशक्य है क्योंकि स्तम्भादि तो अपने हेतुओं से अनुमान के विना भी पूर्वनिष्पन्न ही हैं। यदि कहें कि समारोपव्यवच्छेद अनुमानात्मक 25 ही है तो अनुमान से समारोपव्यवच्छेद नहीं हो सकेगा क्योंकि ‘स्वयं स्व का कारक होना' इस में स्पष्ट ही विरोध है। यदि कहें कि “समारोपव्यवच्छेद यानी अनुमान के रहते समारोप-उत्पत्ति न होना।” तो यहाँ भी समानरूप से वे दोष प्रसक्त होंगे जो पहले (पृ०९३-पं०१७) कह आये हैं। 'अथ भाविनोऽपि समारोपस्य न तेन व्यवच्छेदो विधीयते अपि तु तदुत्पत्तिप्रतिबन्धः'... इत्यादि कह कर दोषापादन किया जा चुका है। (९३-४) 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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