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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
प्रथमपक्षे क्व ज्ञानत्वेनाऽसौ व्याप्त: यतस्तदभावे न स्यात् ? व्यापकाभावे हि नियमेन व्याप्याभावः परस्याभीष्टः। अन्यथा प्राणादेः सात्मकत्वेन क्वचिद् व्याप्त्यसिद्धावप्यात्माभावे स न भवेदिति केवलव्यतिरेकिहेत्वगमकत्वप्रदर्शनमयुक्तं भवेत्। तन्न प्रथमा पक्षः।
bनापि द्वितीयः। यतो यदि नाम सुखे ज्ञानताऽभावः अर्थान्तरभूतानुग्रहस्याभावे किमायातम् ? 5 न हि यज्ञदत्तस्य गौरताऽभावे देवदत्ताभावो दृष्टः । 'तज्ज्ञानताकार्यत्वात् तदभाव' इति चेत् ? न, परं
प्रति तदसिद्धेः। किञ्च, ग्राह्य-ग्राहकभाववत् समानसमयभिन्नसमययोः कार्यकारणभावो दुरन्वय इति प्राक् प्रतिपादितं (९०-८) न पुनरुच्यते। तन्न नैयायिकादीन् प्रति ज्ञानता सुखादेः कुतश्चित् साधनात् सिद्धा।
__प्रथम विकल्प में बताओ कि 'अनुग्रह ज्ञानत्व का व्याप्य होता है' ऐसा आपने कहाँ देखा जिस से कि ज्ञानत्व के विरह में अनुग्रह का अभाव सिद्ध हो ? (मतलब, अनुग्रह ही सुखरूप है, सुख 10 में ज्ञानत्व तो अब तक सिद्ध नहीं है, तब और कौन सी वस्तु है जो सुख से भिन्न हो और उस
में अनुग्रहरूपता रहती हो।) यह नियम तो आप भी मानते हैं कि व्यापक का जहाँ अभाव रहता है वहाँ व्याप्य का अभाव अवश्य रहता है। यदि इस में संदेह ऊठा कर इस तथ्य का अस्वीकार करेंगे तो यह अनिष्ट होगा - जहाँ प्राणादि होते हैं वहाँ सात्मकत्व रहता है - ऐसी अन्वय व्याप्ति
ग्रहण करने के लिये कोई दृष्टान्त नहीं है (कोई सपक्ष नहीं है, विवादास्पद शरीर के अलावा और 15 किसी में भी सात्मकत्व न होने से अन्वय ग्रहण शक्य नहीं है); ऐसी दशा में प्राणादि की सात्मकत्व
के साथ व्याप्ति का ग्रह शक्य न होने से आत्मा के अभाव-स्थल में प्राणादि का अभाव न रहे तो आश्चर्य नहीं। फलतः 'जहाँ सात्मकत्व नहीं वहाँ प्राणादि भी नहीं है' इस केवल व्यतिरेक व्याप्ति के हेतु में असाधकत्व का प्रदर्शन अयुक्त हो जायेगा। तात्पर्य यह है कि 'ज्ञानत्व न हो वहाँ अनुग्रहता
नहीं होती' केवल व्यतिरेक व्याप्ति रूप नियम सिद्ध न होने से अनुग्रह हेतु ज्ञानत्व का गमक नहीं 20 बन सकता, फिर भी यहाँ आप उस को गमक मान लेते हैं - दूसरी ओर सात्मकत्व के साधक
प्राणादि हेतु जो कि केवलव्यतिरेकी ही है - उस को आप अगमक करार देते हैं – वह कैसा अन्याय ? आखिर, सुख एवं अनुग्रह के अभेद का प्रथम विकल्प संगत नहीं है।
* सुख और अनुग्रह की भिन्नता का पक्ष भी अयुक्त * ___दूसरा सुख-अनुग्रह का भेद विकल्प भी ठीक नहीं है। कारण, सुख में ज्ञानत्व न माने तो 25 जो कुछ बिगडेगा तो ज्ञान का बिगडेगा, अनुग्रह तो उस से भिन्न है उस का क्या बिगडा ? (जिस
से कि सुख में ज्ञानत्व न मानने पर अनुग्रह को अभाव प्रतियोगी बन जाना पडे ?) ऐसा नहीं है कि यज्ञदत्त में उजलेपन को न मानने पर देवदत्त को पलायन होना पडे। उजलापन और देवदत्त भिन्न भिन्न है। यदि कहें कि - ‘अनुग्रह भिन्न है लेकिन सुखान्तर्गत ज्ञानत्व का कार्य भी है, अतः
ज्ञानत्व हेतु (कारण) के न होने पर अनुग्रह को पलायन होना पडेगा।' - तो यह गलत है क्योंकि 30 हमारे प्रति अनुग्रह को ज्ञानत्व का कार्य दिखाना असत् है, क्योंकि हम उन में कारण कार्यभाव नहीं मानते।
* सुख और अनुग्रह दोनों के बीच कारण-कार्यभाव असत् * दूसरी बात यह है कि सुखात्मक ज्ञान और अनुग्रह में भेद होने पर जैसे आप (भिन्न ज्ञान
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