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खण्ड-४, गाथा-१
१०३ इति चेत् ? न, अस्य प्रतिविहितत्वात्। ततो न दृष्टान्तदृष्टसाधनधर्मस्य साध्यधर्मिण्यवगतिरित्यसिद्धो
हेतुः।
न च नैयायिकादीन् प्रति सुखादेर्ज्ञानता सिद्धेति साध्यविकलता दृष्टान्तस्य (पृ०८३-५०४)। अथात एव हेतोर्ज्ञानता सुखादेः सिद्धेति न साध्यविकलतादोषः। नन्वत्राप्यपरं निदर्शनमुपादेयम्, तत्राप्येतच्चोये निदर्शनान्तरमित्यनवस्था। नीलादेर्निदर्शनत्वे इतरेतराश्रयत्वम्- सुखादिज्ञानतासिद्धौ नीलादेस्तद्रूपतासिद्धि: 5 तस्याश्च तन्निदर्शनवशात् सुखादेस्तद्रूपतेति कथं नेतरेतराश्रयम् ? न च सुखादौ दृष्टान्तमन्तरेणापि तद्रूपतासिद्धिः, नीलादावपि तथैव तदापत्तेः। अथ सुखादेर्जडत्वे प्रतिभासो न भवेत् जडस्य प्रकाशायोगात्। ननु नीलादावपि प्रकाशतासिद्धावेतदेव वक्तव्यम् किं सुखादिनिदर्शनेन ? तत्र चोक्तमेव (पृ.१००-पं०६) दूषणम्। अथ सुखादेरज्ञानत्वे ततो-ऽनुग्रहाद्यभावो भवेत्। ननु किं सुखमेवानुग्रहः उत ततो भिन्नम् ? भी वह नीलादि का ग्रहण नहीं कर सकता।' – तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पहले 'ज्ञान नीलादि 10 का ग्राहक है, नीलादि स्वयं स्वग्राहक नहीं है' इस तथ्य का समर्थन किया जा चुका है। निष्कर्ष, सुखादि दृष्टान्त में प्रतिपादित स्व-अवभासरूप साधनधर्म की साध्यधर्मि नीलादि में उपलब्धि न होने से, अवभास हेतु ही असिद्ध ठहरा।
* सुखादि के दृष्टान्त में साध्यवैकल्य * ___ हेतु की तरह दृष्टान्त (पृ०८३-पं०१७) भी असिद्ध है। देखिये, नैयायिकादि दर्शनों में तो ज्ञान 15 और सुखादि भिन्न होने से सुखादि में ज्ञानता ही बाधित है अत एव सुखादिदृष्टान्त में ज्ञानता साध्य का वैकल्य प्रकट है। यदि कहें कि - 'हम इसी अवभास हेतु से उस में भी पहले ज्ञानत्व सिद्ध कर लेंगे तो साध्यवैकल्य नहीं होगा।' - अरे, तब तो नया दृष्टान्त भी बताना पडेगा जिस में साध्यवैकल्य न हो। उस नये नये दृष्टान्त में साध्यसिद्धि का प्रश्न ऊठेगा तो पुनः नये नये दृष्टान्त के उपन्यास का अन्त कहाँ होगा ? यदि सुखादि में ज्ञानता की सिद्धि के लिये नीलादि को ही 20 दृष्टान्त बनायेंगे तो जरूर इतरेतराश्रय दोष प्रसक्त होगा। देखिये - सुखादि दृष्टान्त में साध्य (ज्ञानत्व) सिद्ध होने के बाद नीलादि की ज्ञानरूपता सिद्ध होगी, नीलादि की ज्ञानरूपता सिद्ध होने के बाद उस के दृष्टान्त से सुखादि की ज्ञानरूपता सिद्ध होगी - यहाँ अन्योन्याश्रय दोष कैसे टलेगा ? यदि कहें कि - सुखादि में ज्ञानरूपता वगैर दृष्टान्त के ही सिद्ध हो जायेगी- तो नीलादि की ज्ञानरूपता भी बगैर दृष्टान्त के ही (स्वयं) सिद्ध हो जाने पर सुखादि का दृष्टान्त निरर्थकप्रलाप है। 25
* सुखादि में ज्ञानरूपतासाधक तर्काभास * ___ यदि कहा जाय कि – 'सुखादि को जड मानेंगे तो कथमपि उस का प्रकाशन नहीं घटेगा, क्योंकि जड के साथ प्रकाश का योग असंगत है'- तो आप नीलादि में भी प्रकाशरूपता की सिद्धि के लिये ऐसा ही तर्क कीजिए न, क्यों सुखादिदृष्टान्त का आशरा लेते हैं ? 'जड में प्रकाशायोग' की बात में तो 'जडः प्रतीयते प्रकाशायोगश्च'... (पृ.१००-५०६) इत्यादि दूषण कह दिया है। यदि कहें कि – 'सुखादि के अज्ञानमय 30 होने पर सुख से जो अनुग्रहादि होता है वह नहीं होगा। (अज्ञान तो प्रतिकुल होता है। दुःख का मूल है।)' – तो प्रश्न यह है कि सुख स्वयं अनुग्रहरूप है या bसुख से अनुग्रह भिन्न है ?
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