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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ _____ न च नीलादौ सुखाद्यवभासनं परस्य सिद्धम् सिद्धौ वा विप्रतिपत्तेरभावान्न तदवबोधार्थं शास्त्रप्रणयनं सौगतस्य युक्तम् । 'जडतासमारोपव्यवच्छेदार्थं तद्' इति चेत् ? न, स्वप्रतिभासेऽप्यन्यथाप्रतिभाससमारोपोऽस्त्येव, आत्मनोऽनेकरूपेण स्वतः प्रतिभासाभ्युपगमात्, स कुतो व्यवच्छिद्यताम् ? न चायं न समारोपः स्वात्मनि
स्वकार्यकारी साध्यवत् । “स्वप्रतिभासो नीलादिः, अन्यग्राहकाभावे सत्युपलभ्यमानत्वात् सुखादिवद्' इत्यतो 5 ऽनुमानात् स व्यवच्छिद्यते अन्यग्राहकाभावश्चानुपलम्भाद्” – इति चेत् ? न, स्वसंवेदनप्रत्यक्षतोऽहमहमिकया
अन्यग्राहकोपलब्धेः तदभावस्याऽसिद्धत्वात् । अथ स्थूलोऽहम्- कृशोऽहम् इति प्रतीतेः अहंप्रत्ययः शरीरमेव, न च तद् नीलादेहिकम् स्वयं तस्य प्रमेयत्वात्। न, अन्धकाराद्यवगुण्ठितशरीराऽग्रहेऽपि सालोकघटादिग्रहणोपलब्धेः शरीरात् तद्भेदसिद्धिः, तथाप्यभेदे न किंचिद् भिन्नं भवेत्। ततो भिन्नोऽपि न नीलादेाहक'
* समारोपव्यवच्छेद के लिये शास्त्ररचना व्यर्थ * 10 यह भी सोच लो कि किसी को भी नीलादि में सुखादि का अवभास अनुभवसिद्ध नहीं है।
यदि वह अनुभवसिद्ध रहता तो सौगतों को नीलादि में उसकी सिद्धि के लिये कोई शास्त्ररचना का कष्ट ही नहीं करना पडता क्योंकि तब किसी को विवाद ही न होता। यदि कहें कि - ‘अन्यों को नीलादि में जडता का समारोप प्रवृत्त है, उस के व्यवच्छेदार्थ अनुमानबोधक शास्त्ररचना सार्थक
है' - तो यह बेकार है, क्योंकि आत्मा का प्रतिभास रहते हुये भी (शरीरादिरूप में) जडरूप से 15 उस का प्रतिभास यानी समारोप तो रहता ही है क्योंकि आत्मा का अनेक रूपों से (जड, गौर,
श्याम आदि रूपों से) स्वप्रतिभास अनुभवगोचर है, उस का व्यवच्छेद कैसे कर पायेंगे ? 'शरीर में आत्मा का स्वप्रतिभास समारोपरूप नहीं है' ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह भी साध्य की तरह अपनी आत्मा के विषय में समारोपात्मक कार्य करनेवाला है।
* नीलादि में जडादि समारोपव्यवच्छेद की अनुपपत्ति * 20 यदि ऐसा अनुमान करें कि - "नीलादि स्वप्रतिभासरूप हैं, क्योंकि उपलब्ध होते हैं, फिर भी
अन्य कोई नीलादि के ग्राहक (उपलम्भक) नहीं है; जैसे सुखादि। इस अनुमान से हम जडादि समारोप का व्यवच्छेद करेंगे। ‘अन्य कोई नीलादि का ग्राहक नहीं है' यह तो अन्यग्राहक की अनुपलब्धि से ही सिद्ध है।" - तो यह गलत है क्योंकि नीलादि के स्वसंवेदन (यानी ग्राहकत्वसंवेदिज्ञान) प्रत्यक्ष
से 'मैं ग्राहक हूँ न' ऐसी चुनौति के साथ ही नीलादि भिन्न ज्ञानात्मक ग्राहक की उपलब्धि होने से, 25 उस का अभाव सिद्ध नहीं है। यदि कहें कि - 'मैं स्थूल हूँ' 'मैं पतला हूँ' इस प्रतीति से सिद्ध है
कि शरीर ही अहंबुद्धिविषय है। वह तो स्वयं ही प्रमेय है अतः वह नीलादिग्राहक (यानी अहंबुद्धिआलम्बन शरीर से नीलादि का ग्रहण) नहीं हो सकता, अतः स्वप्रतिभासरूप नीलादि से ही स्वग्रहण घटेगा।' - तो यह भी ठीक नहीं है। कारण, जब शरीर अंधेरे में खडा है और घटादिविषय दूर आलोक
संयुक्त है तब शरीर का ग्रहण न होने पर भी घटादि की उपलब्धि होती है इस से यह सिद्ध होता 30 है कि अहंबुद्धिआलम्बन शरीर नहीं है, शरीर से भिन्न ज्ञानात्मक है। देहभिन्न ज्ञानबुद्धि रहने पर
भी यदि शरीर को ही अहंबुद्धिआलम्बनरूप मानेंगे तो अहंबुद्धिरूपता मान लेने के कारण घट-पटादि के भेद का विलय ही हो जायेगा। यदि कहें कि - 'अहंबुद्धिरूप ज्ञान शरीर से भिन्न होने पर
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