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खण्ड-४, गाथा-१
१०१ जडे न तस्य सम्भवोऽन्यथा कृतकत्वादेरप्यनित्यत्वविकल आत्मादौ संभव इति सकलानुमानोच्छेद इति वक्तव्यम् यतस्तत् तत्र तेन व्याप्तमिति कुतो निश्चितम् ? 'तस्मिन् सति दर्शनात्' इति यधुच्येत पुरुषत्वं किञ्चिज्ज्ञत्वेन व्याप्तं तत एव सिद्ध्येत्, विपक्षे बाधक(?)भाव: प्रकृतेऽपि समानः।
अपि च ज्ञानत्वेन व्याप्तं प्रकाशनं सुखादौ स्वयमेव प्रतिपन्नं (८३-४) यदि तदेव नीलादावपि कुतश्चित् प्रमाणात् प्रतीयते तदा ततस्तत्र साध्यसिद्धिर्युक्ता, न पुनः साध्यधर्मव्याप्तधर्मविलक्षणादपि धर्मात् 5 प्रतिभासः इति शब्दसाम्येऽपि, अन्यथा बुद्धिमत्कारणव्याप्तघटादिसन्निवेशविलक्षणादपि पर्वतादिसंनिवेशात् तत्र बुद्धिमत्कारणसिद्धिः स्यादिति 'वस्तुभेदे प्रसिद्धस्य' (प्र०वा०१-१४) इत्यादेरभिधानमसंगतं भवेत्। पूर्ववत् दो विकल्प प्रसक्त होंगे। यदि विचार (जो कि स्वयं प्रकाशरूप ही है,) जड को विषय नहीं बनाता तब पूर्ववत् यहाँ वही दोष होगा कि विचार (विषय न करने के कारण) जड को स्पर्श ही नहीं करता है अत एव उस के प्रकाशायोग का प्रतिपादन भी वह नहीं कर सकता। यदि विचार 10 जड को विषय करेगा तो प्रत्यक्ष क्यों उसे विषय नहीं करेगा, कर सकता है, तो प्रकाशअयोग निरस्त हो गया। यदि कहें कि - "जहाँ प्रकाश है वहाँ ज्ञानत्व है - इस व्याप्तिरूप निश्चय से, ‘यानी जहाँ ज्ञानत्व नहीं वहाँ प्रकाश का योग नहीं' इस व्यतिरेक व्याप्ति से, जड में ज्ञानत्व रूप व्यापक न होने पर प्रकाश के योग का असंभव फलित होगा। यदि व्याप्ति को ठुकरा देंगे तो आप के पक्ष में आत्मा में अनित्यत्वरूप व्यापक न रहने पर भी कृतकत्व आदि का संभव प्रसक्त होगा। फलतः 15 व्याप्ति अर्थशून्य हो जाने से अनुमान मात्र का उच्छेद प्रसक्त होगा।” – तो यह बोलना ही मत, क्योंकि 'प्रकाशन वहाँ ज्ञानत्व से व्याप्त है (प्रकाशन की ज्ञानत्व के साथ व्याप्ति है)' यह किस आधार पर निश्चित किया ? यदि कहें कि - ज्ञानत्व रहता है वहाँ प्रकाशन दिखता है इस आधार पर उस व्याप्ति का निश्चय किया; - तो जहाँ पुरुषत्व रहता है वहाँ अल्पज्ञता दिखती है इस आधार पर अल्पज्ञमात्र में पुरुषत्व भी सिद्ध हो जायेगा। यदि विपक्ष कीटादि में पुरुषत्व का बाध 20 दिखाया जाय तो जड नीलादि में ज्ञानत्व का बाध समान ही है।
* नील में ज्ञानत्व की सिद्धि का प्रयास अनुचित * उपरांत, ज्ञानत्व का व्याप्य प्रकाशन सुखादि में तो आपने अपने ‘यद् अवभासते.. सुखादि' (पृ.८३पं०१७) इस प्रयोग में स्वयं मान्य किया है, वह यदि नीलादि में किसी प्रमाण से उपलब्ध हो तब तो नीलादि में ज्ञानत्व साध्य की सिद्धि वाजीब है; किन्तु जो धर्म वस्तुतः साध्य के व्याप्य से अति 25 विलक्षण (यानी अव्याप्य) है उस धर्म को 'प्रतिभास या अवभास या प्रकाशन' ऐसा नामकरण कर के नामसाम्यवाले प्रतिभासधर्म (जो कि वस्तुतः व्याप्य ही नहीं है) से ज्ञानत्व की सिद्धि का प्रयास करना उचित नहीं है। यदि अव्याप्य धर्म से भी साध्यसिद्धि इष्ट हो, तो बुद्धिमत्कर्तृत्व के व्याप्यतया अभिमत घटादिरचना से अति विलक्षण पर्वतादिरचना (जो कि व्याप्य नहीं हो सकती) से भी बुद्धिमत्कर्तृत्व की सिद्धि प्रसक्त होगी। फिर आप के प्रमाणवार्तिक (१-१४) में जो कहा है - (पृथ्वी आदि का 30 संस्थान पुरुषजन्य है क्योंकि संस्थान है जैसे घटसंस्थान यहाँ) वस्तुविशेष (घट) में प्रसिद्ध पुरुषजन्यत्व की सिद्धि पृथ्वी आदि में संस्थानशब्दसाम्य से शक्य नहीं जैसे बाष्प को धूम कह देने से अग्नि की सिद्धि नहीं होती - ऐसा कथन असंगत हो जायेगा।
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