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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ रूपस्य ज्ञानतासिद्धिः, प्रमाणं चेत् तर्हि स्वपरग्रहणस्वरूपतापि ज्ञानस्य तत एव सिद्धेति न तत्रापि तद्विकल्पावतारः, प्रत्यक्षविरोधात्। तन्न स्वतोऽवभासनं (पृ.८३-पं०५) हेतुः, असिद्धत्वात्।
Bपरतोऽवभासनं (पृ.८३-पं०५) चेत् ? न, तस्यापि वाद्यसिद्धत्वात्नान्योऽनुभाव्यो बुद्ध्यास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्य-ग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ।। (दृष्टव्य-प्र०वा०२-३२७) इत्यभिधानान्न सौगताभिप्रायेण परप्रकाशता कस्यचित् सिद्धा।
न च प्रकाशनलक्षणस्य हेतोर्ज्ञानत्वेन व्याप्तिसिद्धिः, यतः स्वरूपमात्रपर्यवसितं ज्ञानं सर्वमवभासनं ज्ञान(त्व)व्याप्तमिति नाधिगंतुं समर्थम्। न च सकलसम्बन्ध्यप्रतिपत्तौ सम्बन्धप्रतिपत्तिः। उक्तं च - द्विष्ठसम्बन्धसंवित्तिः नैकरूपप्रवेदनात्। द्वयस्वरूपग्रहणे सति सम्बन्धवेदनम् ।। ( )
समान काल-भिन्नकाल के विकल्पों का भय कैसे निवृत्त होगा ? समानकाल में ज्ञान अपने स्वरूप 10 को ग्रहण करेगा तो स्वरूप भी ज्ञान को क्यों ग्रहण नहीं करेगा ? भिन्नकाल में ग्रहण करेगा तो
भिन्न कालीन अन्य पदार्थों को क्यों ग्रहण नहीं करेगा ? यदि कहें कि - स्वरूप कहाँ भिन्न है वह तो ज्ञान स्वयं ही है। इस लिये भेद (या भिन्नकालीनता) प्रयुक्त विकल्पों को यहाँ कोई अवकाश ही नहीं है। - तो यह भी गलत है। कारण, 'ज्ञान' और 'स्वरूप' शब्दभेद से स्पष्ट ही भेद प्रतीत
होता है। यदि यह भेदप्रतीति अप्रमाण है तो शब्दभेद के द्वारा स्वरूप की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध न 15 होने से उस की ज्ञानरूपता भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। यदि भेदप्रतीति प्रमाणभूत है तो उस भेदप्रतीति
से ही स्वरूप भी ज्ञान से पर सिद्ध होने से ज्ञान स्व एवं पर का ग्रहणस्वरूप ही फलित हो गया। प्रमाणसिद्ध वस्तु के ऊपर किसी विकल्पों का अवतार शक्य नहीं है, क्योंकि प्रमाणसिद्ध वस्तु पर वैसे विकल्प प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध ठहरेंगे। निष्कर्ष, अवभासन हेतु (जो कि नीलादि को ज्ञानरूप सिद्ध करने के लिये उपन्यस्त किया गया है) का प्रथम विकल्प Aस्वतो अवभास (पृ०८३-पं०१६) यहाँ 20 सुस्थित नहीं है, क्योंकि इसविकल्प में अवभास हेतु असिद्धिदोष ग्रस्त है।
* B विकल्प में परतः अवभासन हेतु असिद्ध * (पहले ‘यद् अवभासते तद् ज्ञानम्' इस प्रयोग के हेतु पर 'स्वतः' 'परतः' 'अवभासमात्र' ये तीन विकल्प किये गये थे (पृ०८३-पं०१६) उन में ‘स्वतः' इस प्रथम विकल्प के बाद अब दूसरे विकल्प
का निषेध शुरु हो रहा है।) 25 ज्ञानरूपता की सिद्धि के लिये अवभासन हेतु का Bपरतः अवभासन पक्ष माना जाय तो वह
भी वादी बौद्ध के मत में असिद्ध है। बौद्धों ने अपने अभिप्राय प्रकट करते (प्र. वा. २-३२७) कहा है, “बुद्धि से भिन्न कोई अनुभाव्य यानी ग्राह्य नहीं है, एवं अनुभव उस (ग्रहणबुद्धि) से अतिरिक्त नहीं है। इस स्थिति में कोई ग्राह्य नहीं है (अत एव) कोई ग्राहक भी नहीं है, सिर्फ बुद्धि अपने
आप रोशन होती है।” इस अभिप्रायानुसार किसी भी वस्तु की परप्रकाशता प्रसिद्ध नहीं है। 30 यह भी जान लो कि ज्ञानत्व के साथ अवभासन हेतु की व्याप्ति भी नहीं बैठती। कारण,
ज्ञान तो अपने स्वरूपवेदन में ही मस्त है, वह प्रत्येक अवभासन में ज्ञानत्व की व्याप्ति को ग्रहण करने में कैसे शक्तिप्रकटन करेगा ? व्याप्ति व्याप्य-व्यापक का सम्बन्ध है, सभी संबंधियों को (व्याप्य
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