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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ___ न च परेण समानकालेनाऽप्रतिबन्धात् परस्परग्रहणप्रसक्तेश्च नार्थग्रहणम्; भिन्नकालेनाप्यतिप्रसंगाद् न तेन तद्ग्रहणम्, अन्यत्रापि समानत्वात्। अत एव ‘स्वरूपस्य स्वतो गति: (प्र.वा.१-६) इत्युक्तम्, तत्रापि समानकालस्य गतावर्थवत्प्रसंगात् । न च स्वरूपस्य ज्ञानतादात्म्यान्नायं दोषः, तादात्म्येऽपि समानेतरकालविकल्पद्वयानतिवृत्तेः। अथ स्वरूपं ज्ञानमेवेति न भेदभाविविकल्पावतारस्तत्र । न, तथाप्रतीतेः, तत्तथाप्रतीतिश्च यद्यप्रमाणं नातः स्व- 5 * स्व-परग्रहण व्यापारनिषेध का असंभव * यदि कहें कि - अनुमान से अर्थनिषेध न होने पर भी तर्कगर्भित विचार से स्वपरग्रहण व्यापार का निषेध होगा, तो यह संभव नहीं, क्योंकि स्व-परग्रहण व्यापार को स्पर्श न करनेवाला विचार उस व्यापार का निषेध भी नहीं कर सकता, अगर विषय करता है तब तो उस विचार से ही नीलादि और ज्ञान में ग्राह्य-ग्राहक भाव सिद्ध हो जाने से अर्थग्रहणव्यापार का निषेध नहीं हो सकेगा। 10 निष्कर्ष, नीलादिप्रतिभास को सर्वविकल्पमुक्त मान लेना असंभव है। ऐसा भी नहीं है कि “स्व-पर ग्रहण का या अर्थप्रतिभास का अन्य अन्य स्थान में अस्तित्व ही नहीं है एवं नास्तित्व भी नहीं है,” क्योंकि ऐसा मानने पर अन्य सन्तान के निषेध की तरह सर्वत्र सभी पदार्थो के अस्तित्वनास्तित्व के विकल्प समाप्त हो जायेंगे। अतः यही मानना होगा कि कोई स्थूल होता है कोई एक है, कोई अण होता है, क्योंकि इन विकल्पों से अस्पृष्ट वस्तु कभी भी प्रतिभासित नहीं होती. 15 अन्यथा जैसे जड के स्वतः प्रतिभास का निषेध है वैसे ही आप के मतानुसार तो अजड पदार्थ का स्वतः प्रतिभास भी असम्भवग्रस्त रहेगा। यदि स्वतः नहीं तो परतः अजड का प्रतिभास मानेंगे तो जड का भी परतः प्रतिभास सिद्ध होने से विज्ञानमात्रसत्त्व वाद समाप्त हो जायेगा। * अन्योन्यग्रहण की आपत्ति उभयपक्ष में तुल्य * __यदि कहें कि - अर्थ का समकालीन किन्तु भिन्न ज्ञान यदि अर्थ को ग्रहण करेगा तो, कोई बाध 20 न होने से अर्थ भी ज्ञान को ग्रहण करेगा, इस प्रकार तो अन्योन्य (एक दूसरे के) ग्रहण की अनिष्टापत्ति होगी। भिन्न कालीन भिन्न ज्ञान यदि अर्थ का ग्रहण करेगा तो सारे जगत् के ग्रहण का अति अनिष्ट प्रसंग होगा। मतलब कि ज्ञान से स्वभिन्न अर्थ का ग्रहण संभव नहीं है।' - तो यह अभिन्न पक्ष में भी तुल्य दोष ग्रस्त है। अभिन्न पक्ष में ज्ञान नीलादि को ग्रहण करेगा तो नीलादि भी ज्ञान को ग्रहण करेगा, परस्परग्रहण का अनिष्ट यहाँ भी तुल्य है। प्रमाणवार्तिक (१-६) में जो धर्मकीर्ति ने कहा है 25 कि 'अपने स्वरूप का अवगम (ज्ञान में) स्वतः हो जाता है' - यह इसी लिये अयुक्त ठहरता है, क्योंकि वहाँ भी अर्थ के लिये किये गये समान-भिन्नकालीनता के विकल्पों (परस्परग्रहण) की प्रसक्ति द्वारा ‘अर्थ द्वारा भी अपने आप को अवगत कर लेने की अनिष्टापत्ति' तदवस्थ रहेगी। * ज्ञान एवं ज्ञानस्वरूप में भी भिन्नाभिन्नकालविकल्प * यदि कहें कि - ज्ञान और उस का स्वरूप तो एक ही है, दोनों का अत्यन्त तादात्म्य होता 30 है, इस लिये परस्पर ग्रहण या तो अपने आप स्व का अवगम कर लेने की यहाँ कोई आपत्ति जैसा कुछ नहीं है। - तो यह गलत हैं, क्योंकि स्वरूप का स्व में (ज्ञान में) तादात्म्य रहने पर भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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