SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ___ किञ्च, नीलादिप्रतिभासानामेकेनाणुप्रतिभासेन तदन्येषां तैश्च तस्याऽविषयीकरणादभावप्रसक्तिः । स्वतोऽपि केवलपरमाणुप्रतिभासस्याऽसंवेदनात् । अथ नील-सुखादीनां नाभावः स्वयमुपलम्भात्। न, सन्तानान्तरानिषेधप्रसक्तेः तदभ्युपगमे कथं स्वपरग्रहणव्यापारनिषेधोऽनुमानाभावात् ?! न च विचारात् तद्व्यापारनिषेधः, अनेन तदविषयीकरणे न तनिषेधः, विषयीकरणे ग्राह्य-ग्राहकभावसिद्धेर्न तन्निषेधः इति न सकलविकल्पातीतत्वसंभवः। न च तत्त्वस्यान्यत्र न भावः नाप्यभावः, सर्वत्र तथाभावापत्तेः सन्तानान्तरवत्। ततः स्थूलैकत्वादिविकल्परहितस्य कदाचिदप्यप्रतिभासनाद् जडवदजडस्यापि न स्वतोऽवभासनं पराभ्युपगमेन सम्भवति। परतस्तस्यावभासने जडस्यापि ततोऽवभाससिद्धेर्विज्ञानमात्रताऽसिद्धिः। तो उस में विरोध प्रसक्त होगा। कैसे यह देखिये - जैसे ब्रह्म को नील-पीतादि किसी भी विकल्प से मुक्त ब्रह्ममात्रस्वरूप मानने पर, उस का तद्रूप से प्रतिभास नहीं होता - यह विरोध प्रसक्त 10 होता है वैसे ही नीलज्ञान या सुखज्ञान को भी सिर्फ एक मात्र प्रतिभासरूप मानने पर, उस का तद्रूप से अप्रतिभास यानी विरोध प्रसक्त होता है।। नीलादिप्रतिभास को विकल्पमक्त मानने पर सर्वशन्यतावाद की भी अनिष्टापत्ति होगी। कारण, नीलज्ञान या सुखज्ञान सिर्फ प्रतिभासात्मक होने पर भी नीलस्वरूप या सुखस्वरूप तो माना ही जाता है और ऐसा मानने पर भी वह पीतप्रतिभास या दुःखप्रतिभास को स्पर्श ही नहीं करते, जब वे 15 प्रतिभासात्मक है तो नील-सुख की तरह उन का स्पर्श करना चाहिये, लेकिन नहीं करता, मतलब कि वे प्रतिभास ही नहीं है। ठीक इसी तरह पीतप्रतिभास और दुःखप्रतिभास भी नीलप्रतिभास या सुखप्रतिभास को विषय नहीं करता अतः वह भी प्रतिभासात्मक नहीं होंगे। ब्रह्माद्वैतवादीमत में जैसे परलोक असत् है, उसी तरह प्रतिभास मात्र के असत् हो जाने पर ज्ञानामात्रवादी के मत में बलात् शून्यता का प्रवेश अनिवार्य रहेगा। * बौद्धमत में प्रतिभासमात्र के अभाव की आपत्ति * यह भी समस्या है कि जैसे नीलप्रतिभास एवं सुखप्रतिभास की शून्यता प्रसक्त होती है वैसे ही प्रतिभास मात्र की शून्यता भी अतिप्रसक्त है। निरंश एक मात्र अणुप्रतिभास से स्वअंतर्गतनीलादिप्रतिभासों का संवेदन तो विवादग्रस्त है ही, उन नीलादिभिन्न प्रतिभासों का संवेदन भी अशक्य है क्योंकि वह उन का तो स्पर्श ही नहीं करता, एवं उन नीलादिभिन्नप्रतिभासवृन्द से उस एक अणुप्रतिभास 25 का भी संवेदन शक्य नहीं क्योंकि वे उस को स्पर्श नहीं करते। इस स्थिति में किसी भी नीलादि या उन के प्रतिभास की सिद्धि न होने से सभी का अभाव ही प्रसक्त होगा, क्योंकि तब तो वह अपने आप का भी 'मैं केवल परमाणुप्रतिभासमात्र हूँ' ऐसा संवेदन नहीं कर सकता। यदि कहें कि - नील सुखादि तो स्वयं स्वसंवेदी हैं अतः उन का अभाव नहीं होगा- तो यह इस लिये ठीक नहीं है कि तब वहाँ अन्य पीत-सुखादि के संवेदन का भी निषेध (केवल ज्ञानमात्रवादी पक्ष में) 30 कैसे हो सकता है ? अगर उन का भी (पर का) संवेदन मान लेंगे तो आप जिस अनुमान से ज्ञान में स्व-पर ग्रहण व्यापार का निषेध करते हैं वह शक्य न होगा, क्योंकि 'जो अवभासित होता है वह ज्ञान होता है' - इस अनुमान में, नीलादिप्रतिभास को व्यापार स्वभाव मान लेने पर बाध प्रसक्त होगा। 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy