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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ९५ न च - जडस्य स्वतः प्रकाशे ज्ञानता जडताविरोधिनी प्रसज्यते, ज्ञानस्य तु स्वतः प्रकाशे विरोधाभावान्न प्रथमविकल्पे दोषापत्तिः;- निरंशैकपरमाणुपरिमाणस्य तस्य स्वतःप्रकाशे स्थूलैकप्रतिभासविरोधात् । न हि प्रत्यक्षप्रतीतस्य स्थूलैकप्रतिभासस्य विरोधो न दोषाय, तत्प्रतिभासपरिहारेण निरंशैकपरमाणुप्रतिभासस्याऽप्रतीयमानस्याभ्युपगमे एकस्य ब्रह्मणः स्वतः प्रतिभासः किं नाभ्युपगम्यते अप्रतिभासमानकल्पनायास्तत्रापि निरंकुशत्वात् ? चित्रैकस्वभावस्य तस्याभ्युपगमे क्षणिकत्वविरोधः । क्रमपरिणामिनस्तथैवात्मनः स्वतःप्रति- 5 भासाऽविरोधात् सर्वविकल्पातीतस्य तस्याभ्युपगमे नील-सुखादिव्यतिरिक्तस्य तस्य ब्रह्मस्वरूपवत् तदप्रतिभासनमेव विरोधः; नीलसुखाद्यात्मकत्वेऽपि नील-सुखप्रतिभासेन पीत-दुःखप्रतिभासाऽविषयीकरणात् पीत-दुःखप्रतिभासेन नीलसुखप्रतिभासयोश्चाऽसंवेदनात् परलोकवदसत्त्वेन सकलशून्यताप्रसक्तिः । दूरापास्त ही है क्योंकि 'मैं नील को जानता हूँ' ऐसी प्रतीति (नीलभासक प्रतीति) सुप्रसिद्ध है। यदि आप कहेंगे कि यह तो ज्ञान का प्रतिभास है जड वस्त का नहीं - तो यहाँ भी 'ज्ञान का प्रतिभास . स्वतः है या परतः ?' इन विकल्पयुग्म से आप पीछा नहीं छूडा सकेंगे। * बौद्ध मत में ज्ञान की स्वप्रकाशता विरोधग्रस्त * यदि कहा जाय - 'जड को स्वतः प्रकाश मानने पर तो उस में जडता से विरुद्ध ज्ञानता प्रसक्त होती है, इस लिये जड को स्वप्रकाश न मानना उचित है। जब कि नील ज्ञान को प्रथम विकल्प में स्वतःप्रकाश मानने पर कोई विरोध न होने से दोष को अवकाश नहीं रहता' - तो यह 15 गलत है, विरोध तो यहाँ भी प्रसक्त है, नील ज्ञान में यदि निरंश एक परमाणु (स्वलक्षण) परिमाणात्मक नील भासित होता है वह स्वप्रकाश ज्ञानमय है, तो उस के स्थूल मात्र होने का प्रतिभास होता है उस से विरोध प्रसक्त होगा। (नीलज्ञान निरंश होने से नील अंश में स्थूलता और ज्ञान अंश में स्वप्रकाशता का निवेदन अशक्य है।) प्रत्यक्ष से ही नीलज्ञान में स्थूलमात्र का प्रतिभास होता है उस के साथ विरोध दोष होता है उस की उपेक्षा भी नहीं हो सकती। कारण, प्रत्यक्षसिद्ध स्थूलप्रतिभास 20 के विरोध की उपेक्षा कर के अप्रतीत निरंश एक परमाणुस्वरूप ज्ञानमात्र का स्वीकार करेंगे तो फिर प्रत्यक्षसिद्ध प्रपञ्च के साथ विरोध की उपेक्षा कर के एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म का स्वतः प्रतिभास मान लेने में क्या आपत्ति है ? ‘एक ब्रह्म का स्वतः प्रतिभास नहीं होता तब उस की कल्पना में निरंकुशता होगी' - ऐसा तो नील के स्थूल एक प्रतिभास को अमान्य कर के निरंश एक -परमाणु-ज्ञानमयता की आप के द्वारा, 25 कल्पना में भी निरंकुशता क्यों नहीं होगी ? यदि नील ज्ञान को स्थूल एवं निरंशपरमाणु इत्यादि अनेक स्वरूप यानी चित्रस्वभावी मान लेंगे तो अनेकक्षणसम्बन्ध भी चित्रस्वभावान्तर्गत मान लेना पड़ेगा, तब क्षणिकत्व के साथ विरोध प्रसक्त होगा। कारण, ज्ञानात्मा को ज्ञानत्वस्वरूप से अवस्थित मान कर उस में क्रमशः नील-पीतादि की शृंखला को स्वीकार लेने से स्वतः प्रतिभास के साथ कोई विरोध नहीं हो सकता, जैसे कि चित्र 30 स्वभाव के साथ विरोध आप नहीं मानते। * नील की प्रतिभासमात्ररूपता विरोधग्रस्त * यदि नीलज्ञान को स्वतः परतः प्रतिभास के विकल्पों से मुक्त सिर्फ प्रतिभासात्मक ही मानेंगे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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