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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ इति कस्तत्रानुमानोपयोग: ? न चानुमानसहायः प्राक्तनः समारोपक्षण: उत्तरं समारोपक्षणान्तरजननाऽसमर्थं जनयतीति द्वितीयक्षणे कारणाभावादेव समारोपानुत्पत्तिः, लिङ्गानुमानयोरिव पूर्वोत्तरसमारोपक्षणयोर्हेतुफलभावाभावात् । अथ समारोपव्यवच्छेदकृदप्यनुमानं नेष्यते तर्हि प्रकृतानुमानस्य फलान्तराभावादभिधानमसाधना ङ्गवचनत्वान्निग्रहस्थानमापद्यते। अथ प्रकृतानुमानं नोपन्यस्यते, कुतस्तर्हि नीलादीनां ज्ञानरूपतासिद्धिः ? प्रत्यक्षत एवेति चेत ? तत एव जडतासिद्धिरप्यस्त। अथ ज्ञानरूपतापि नीलादे परा समस्त्यपि त तत्स्वरूपमेव । न, अन्यत्राप्यस्य समानत्वात्। अथ नीलादेर्जडत्वे प्रतिभासो न भवेत् जडस्य प्रकाशाऽयोगात् । न, स्वतस्तस्याभावे सिद्धसाध्यतापत्तेः। परतोऽपि तदभावोऽसिद्धो 'नीलमहं वेद्मि' इति प्रतीतेः। जडस्य च प्रकाशाऽयोगे कस्यासाविति वाच्यम्। 'ज्ञानस्य' इति चेत् ? न, तत्रापि ‘स्वतः परतो वा' इतिविकल्पद्वयानतिवृत्तेः। 10 यदि समारोप के जनक कारण समारोपोत्पत्ति में असमर्थ है तो वास्तव में वह कारण ही नहीं है, अर्थात् कारण नहीं होने से ही समारोप नहीं उद्भवेगा, तब समारोप के उद्भव को रोकने के लिये अनुमान का योगदान ही क्या रहा ? * अनुमान से समारोपव्यवच्छेद अशक्य यदि कहा जाय – पूर्व समारोपक्षण अनुमान की सहायता से उत्तरक्षण में ऐसे समारोप को 15 निपजाता है जो उस के बाद नये समारोप की उत्पत्ति के लिये नपुंसक होता है। - तो यह गलत है क्योंकि तीसरे क्षण में नये समारोप को उत्पन्न करने के लिये दूसरे क्षण में समर्थ समारोपक्षणात्मक कारण नहीं है इस लिये वह उत्पन्न नहीं होता, इस में अनुमान को कौनसा यश मिला ? जैसे लिंग से व्याप्तिज्ञान, व्याप्तिज्ञान से अनुमान होता है तब लिंग एवं अनुमान में कार्य-कारणभाव आप को अमान्य है वैसे ही अनुमान से नपुंसक समारोपक्षण और उस नपुंसक क्षण से नये समारोप का 20 अनुभव होता है, तब नपुंसकक्षण और उत्तर समारोपक्षण में कारण-कार्य भाव ही नहीं है, तब अनुमान का योगदान क्या ? यदि कहें कि - हम तो अनुमान को समारोप व्यवच्छेदकारक भी नहीं मानते - तो फिर 'जो भासित होता है वह ज्ञानरूप होता है' इस भवदीय अनुमान का और कौन सा फल शेष बचा ? क्यों आपने ऐसे निष्फल अनुमान का उपन्यास किया ? भवदीय अनुमान-उपन्यास, आप के इष्ट साध्य के साधन का अंग न होने से निग्रहस्थान साबित होता है। यदि कहें कि - ‘भासित 25 होता है वह ज्ञानरूप है' ऐसे अनुमान का उपन्यास हम नहीं करते हैं - तो नीलादि में ज्ञानरूपता कैसे सिद्ध होगी ? प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि प्रत्यक्ष से तो विपरीत यानी जडरूपता ही सिद्ध होती है। यदि कहें कि - ज्ञानरूपता नीलादि से पृथक् नहीं होती बल्कि वह उस का स्वरूप ही है, स्वरूप तो स्वयं सिद्ध ही होता है, - तब तो हम भी कहेंगे कि जडता नीलादि से पृथक् नहीं बल्कि उस का स्वरूप ही है जो कि स्वयंसिद्ध है। 30. यदि कहें कि - जडता नीलादिस्वरूप होने पर वह प्रतिभासित नहीं होगी, क्योंकि जड वस्तु (स्व)प्रकाश नहीं होती। - तो यहाँ स्वतः प्रकाश का निषेध करने पर तो सिद्धसाध्यता दोष लगेगा, क्योंकि नीलादि जड को हम भी स्वप्रकाश नहीं मानते। यदि परप्रकाशता का निषेध करेंगे तो वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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