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खण्ड-४,
गाथा - १
अर्थः परमार्थः ज्ञानमर्थनिर्णायकम्
(विज्ञानवाद - शून्यतावादनिरसनम्)
अत्राह सौगतः - भवतु स्वसंविदितं ज्ञानम् अर्थग्रहणस्वभावं तु तन्न युक्तम् अर्थस्यैवाभावात् । तथाहि, यद् अवभासते तद् ज्ञानम् यथा सुखादिः, अवभासते च नीलादिकमिति स्वभावहेतुः ।
नन्वत्र किं स्वतोऽवभासो हेतुः उत परतः ? आहोस्विदवभासमात्रम् ? इति विकल्पाः । 5 तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः परं प्रति तस्याऽसिद्धत्वात्, 'नीलमहं वेद्मि' इत्यहमहमिकया नीला विभिन्नतया प्रतीयमानेन ज्ञानेन नीलादेर्ग्रहणाभ्युपगमान्न परानपेक्षनीलाद्यवभासः परस्य सिद्धः । यदि तु परनिरपेक्षो नीलाद्यवभासः परस्य सिद्धो भवेत् किमतो हेतोरपरं साध्यमिति वक्तव्यम् । ज्ञानरूपतेति चेत् ? ननु सा यदि प्रकाशता तदा हेतुसिद्धौ सिद्धैव न साध्या । अथ सा न सिद्धा, कथं हेतोर्नासिद्धि: ? अथ भ्रान्तेः पुरुषधर्मत्वात् स्वतोऽवभासनं नीलादिष्वभ्युपगच्छन्नपि ज्ञानरूपतां नेच्छेदिति साध्यते तर्हि 10 भ्रान्तेरेव भावधर्ममिच्छन्नपि कश्चिद् भावं नेच्छेदिति “नाऽसिद्धे भावधर्मोऽस्ति” (प्र.वा. ३ - १९१ उ.) इत्यत्र कथमुक्तम् — “ को हि भावधर्मं हेतुमिच्छन् भावं नेच्छेत्” (प्र.वा. ३-१९१ टी.) इति । * पारमार्थिक अर्थ के निर्णय द्वारा विज्ञानवाद का निरसन
अब बौद्धवादियों के विज्ञानवाद एवं शून्यवाद की समीक्षा शुरु होती है ।
बौद्ध कहते हैं है, क्योंकि अर्थ का है वह ज्ञान है जैसे
जैनवादी इस के प्रतिपक्ष में कहते हैं मान्य है ? A स्वतः अवभासित होना, परतः अवभासित होना, या सिर्फ
A प्रथम पक्ष अयुक्त है क्योंकि नीलादि का स्वतः अवभासित होना यह अन्यों के मत में 20 असिद्ध है । (यानी अन्य मतों के अनुसार हेतु असिद्ध है ।) 'मैं नील को जानता हूँ' इस अनुभव में स्वप्रकाश की स्पर्धा में ज्ञान तो नीलादि से पृथक् स्वरूप से ही प्रतीत होता है और उस ज्ञान से ही नीलादि का ग्रहण विदित होता है । अर्थात् पर से ( नीलादि से) निरपेक्षतया नीलादि का अवभास बौद्धेतरों के मत में असिद्ध है । यदि सभी के मत में परनिरपेक्ष नीलादि का अवभास सिद्ध रहता तो अवभासात्मक हेतु से और क्या सिद्ध करना शेष रहा ? यदि कहें कि अवभासात्मक हेतु 25 से नीलादि में ज्ञानरूपता सिद्ध करना शेष है जो कि स्वभावहेतु से सिद्ध की जाती है तो वह सिद्ध करने की जरूर ही नहीं है क्योंकि स्वतोअवभासपक्ष में प्रकाशता ही ज्ञानरूपता है जो कि ज्ञानमात्र में सिद्ध ही है । यदि कहें कि वह नीलादि में सिद्ध नहीं है तब तो 'स्वतो अवभासित होना' यह हेतु ही असिद्ध बन गया, क्योंकि आप स्वयं कहते हैं कि नीलादि में प्रकाशतारूप ज्ञानरूपता
ज्ञान को स्वसंविदित मानना सत्य है । किन्तु उसे अर्थग्राहक मानना अनुचित 15 अस्तित्व ही नहीं है यहाँ स्वभावहेतुक अनुमान है जो अवभासित होता सुखादि, नीलादि भी अवभासित होता है।
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'अवभासित होना' इस हेतु के तीन विकल्प में कौनसा
अवभासित होना ?
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*. भ्रान्तेः... तस्याश्च पुरुषे तद्धर्मत्वेन सम्भवात् इति न्यायविनिश्चये (२-५) टीकायाम् ।
7. 'यो हि भावधर्मं तत्र हेतुमिच्छति स कथं भावं नेच्छेत् ?' (इति प्र० वार्त्तिके स्वोपज्ञटीकायाम् ३ - १९१) । अष्टसहस्यां प्रमेयकमलमार्त्तण्डे च ईदृश्युक्तिर्दृश्यते - इति सुखलालादिकृतटीप्पणे ।
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