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________________ ८२ सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २ च 'सा तस्य' इति नात्मानर्थक्यम् समवायाभावे 'तस्य सा' इत्यसिद्धेः । किञ्च, यदि शक्तिप्रक्षयादनवस्थानिवृत्तिः बाह्यविषयमपि ज्ञानं न भवेत् शक्तिप्रक्षयादेव । न च चतुर्थादिज्ञानजननशक्तेरेव प्रक्षयो न बाह्यविषयज्ञानशक्तेः; युगपदनेकशक्त्यभावात् भावे वा युगपदनेकज्ञानोत्पत्तिप्रसक्तिः । सहकार्यपेक्षापि नित्यस्याऽसम्भविनीति प्रतिपादितम् (पृ०६०-पं० १ ) । क्रमेण शक्तिभावे कुतः स इति वक्तव्यम् ? आत्मन इति चेत् ? न, 5 अपरशक्तिविकलात् ततः तदभावात् अपरशक्तिपरिकल्पने तद्भावेऽप्यपरशक्तिपरिकल्पनमित्यनवस्था । तदेवं स्वसंविदितविज्ञानानभ्युपगमे कथञ्चिद् घटादिज्ञानस्यासिद्धेराश्रयासिद्धः 'ज्ञेयत्वात्' इति हेतु: ( पृ०६५पं०७) स्वरूपासिद्धश्चेति व्यवस्थितमेतत् स्वनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानमिति । आत्मा की' ही है अतः आत्मा निरर्थक कैसे होगा ?” यह कहना गलत है क्योंकि समवाय असिद्ध होने से भिन्न शक्ति आत्मा की' कैसे सिद्ध होगी ? दूसरी बात यह है कि यदि आत्मशक्ति क्षीण हो जाने से अनवस्था निवृत्त होगी तो शक्ति क्षीण हो जाने से ही बाह्यविषय का भी तब ज्ञान कैसे हो सकेगा ? पूर्वपक्षी :- सिर्फ चतुर्थादिज्ञानजनक शक्ति का ही क्षय मानेंगे, बाह्यविषयकज्ञानजनक शक्ति का नहीं । 10 उत्तरपक्षी :- नहीं, आत्मा में एक साथ अनेकशक्ति का अस्तित्व मानना, उस में से किसी का 15 क्षय मानना किसी का नहीं, यह नहीं हो सकता। एक साथ अनेक शक्ति मानने पर तो एक साथ अनेकज्ञानजन्म का भी अनिष्ट प्रसक्त होगा । पूर्वपक्षी :- नहीं होगा, जिस ज्ञान के लिये सहकारी सांन्निध्य होगा वही उत्पन्न होगा न कि सब एकसाथ । उत्तरपक्षी :- आत्मा नित्य है, नित्य पदार्थ को अपने कार्य करने में सहकारी की अपेक्षा घटती 20 नहीं। पहले यह बात ( पृ०६० - पं० १६) की गयी है । * नित्य आत्मा में क्रमिक शक्ति- आविर्भाव अशक्य * यदि कहें कि 'अन्य अन्य ज्ञानजननशक्ति एक आत्मा में क्रमशः होती है, एक साथ नहीं होती अतः एकसाथ अनेकज्ञानजन्म की समस्या नहीं रहेगी' तो यह भी असंगत है । जब आत्मा नित्य है तो शक्ति कैसे क्रमिक होगी ? एकसाथ क्यों नहीं ? केवल आत्मा से तो वैसा शक्य नहीं 25 है। कारण शक्तिक्रम व्यवस्थापक अन्य शक्ति के विना केवल आत्मा से शक्तिक्रम सम्भव नहीं है । शक्ति के क्रमादि की व्यवस्था के लिये और अनवस्था प्रसक्त होगी । यदि शक्तिक्रम के लिये अन्यशक्ति मान लेंगे तो वैसी एक शक्ति, उस के लिये भी और एक ... इस तरह उक्त प्रकार से यह फलित होता है कि ज्ञान को स्वसंविदित न मानने पर किसी भी तरह 'घटादिज्ञान' रूप पक्ष ही सिद्ध न होने से, 'स्वग्राह्य नहीं होता' इस साध्य का साधक 'ज्ञेयत्व' हेतु 30 आश्रयासिद्ध एवं स्वरूपतः असिद्ध बन जायेगा। यानी पहले जो पूर्वपक्षी ने यह अनुमान ( पृ०६५पं०७) कहा था ‘घटादिज्ञान स्वग्राह्य नहीं होता क्योंकि ज्ञेयभावरूप है घटादिवत्' यह अनुमान मिथ्या सिद्ध हुआ । निष्कर्ष यह निकला कि ज्ञान स्वभावतः स्वग्राही है । Jain Educationa International — - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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