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खण्ड-४, गाथा-१ बलीयस्त्वात्' [ ] नान्तरङ्गविषयपरिहारेण बाह्यविषये ज्ञानोत्पत्तिर्भवेदिति कुतोऽनवस्थानिवृत्तिः ? न चादृष्टवशादनवस्थानिवृत्तिः स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगमेनाप्यनवस्थानिवृत्तेः संभवाद्, अन्यथा कार्येऽनुपपद्यमानेऽदृष्टपरिकल्पनाया उपपत्तेः, स्वसंवेदनेऽपि चादृष्टस्य शक्तिप्रक्षयाभावात्। __एतेन 'ईश्वरादेरनवस्थानिवृत्तिः' इति प्रतिविहितम् तस्याऽदृष्टकल्पनत्वात् प्रतिषिद्धत्वाच्च। न च शक्तिप्रक्षयाच्चतुर्थज्ञानादेरनुत्पत्तेरनवस्थानिवृत्तिः, धर्मिग्रहणस्यैवमभावापत्तेः । किञ्च, शक्तिर्यद्यात्मनोऽव्यतिरिक्ता 5 तदा तत्क्षये आत्मनोऽपि क्षयापत्तिः। व्यतिरिक्ता चेत् ? तत एव ज्ञानोत्पत्तेरनर्थक आत्मा भवेत्। न नहीं है कि नये नये ज्ञानसन्तान की उत्पत्ति के काल में बाह्य साधनादिरूप विषय का संनिधान अवश्य रहेगा, जिस से कि तृतीय-चतुर्थादि ज्ञानोत्पाद रुक जाय और दूसरे विषय में ज्ञान का संचार हो जाय । कदाचित् अन्य विषय के संनिधान का नियम मान लिया जाय, फिर भी अप्रकाशज्ञानवाद में विषयान्तरसंचार रुक कर तृतीयादिज्ञानोत्पाद की ही प्रसक्ति होगी। कारण यह नियम है कि जब 10 अन्तरंग एवं बहिरंग ऐसे दो कारण (सामग्री) का संनिधान युगपद् हो जाय तब बहिरंग से भी अन्तरंग सामग्री बलवती होने से बहिरंग कार्य रुक जायेगा, अन्तरंग कार्य ही जन्म लेगा। प्रस्तुत में तृतीयादि ज्ञानोत्पत्ति की सामग्रीरूप ज्ञान अन्तरंग साधन है जब कि बाह्य साधनादि विषय बहिरंग है। अतः विषयान्तरसंचार न होगा, तृतीयादि ज्ञान ही जन्म लेते रहेंगे - अनवस्था ज्यों की त्यों रहेगी।
पूर्वपक्षी :- विषयान्तरसंचार से न रुकनेवाली अनवस्था आखिर अदृष्ट से रुक जायेगी। 15
उत्तरपक्षी :- नहीं, ऐसी अदृष्ट की कल्पना किये विना सिर्फ स्वसंविदित ज्ञान का स्वीकार कर लेने पर भी अनवस्था रुक सकती है। अदृष्ट की कल्पना सिर्फ ऐसे कार्यों के पीछे की जाती है जहाँ उस के विना प्रस्तावित कार्य की उत्पत्ति ही न हो सके। स्वसंवेदन पक्ष में भी अदष्ट की शक्ति का विलय नहीं हो जाता। तात्पर्य, अदृष्ट के द्वारा अनवस्था को रोकने की कल्पना करने के बजाय अदृष्ट को स्वसंवेदन ज्ञान के उत्पाद में ही प्रयोजक क्यों न माना जाय ? 20
ईश्वर की या शक्तिप्रत्यक्ष की कल्पना का निरसन * अनवस्था के निरसनार्थ अदृष्ट की कल्पना के प्रतिविधान की तरह ईश्वरकल्पना का भी प्रतिविधान समझ लेना चाहिये। कारण, ईश्वर की कल्पना अदृष्ट की कल्पना ही है। जब तक स्वप्रकाशज्ञान मान लेने से अनवस्थानिरसन संभव है तब तक अदृष्ट की तरह ईश्वर की कल्पना भी व्यर्थ है और प्रथमखंड में ईश्वरकर्तृत्व का निषेध हो चुका है।
25 __ पूर्वपक्षी :- तृतीयज्ञान से चतुर्थज्ञानजनक आत्मशक्ति क्षीण हो जाने से चतुर्थज्ञानोत्पाद रुक जायेगा, अनवस्था भी रुक जायेगी।
उत्तरपक्ष :- पहले कह दिया है कि तृतीय ज्ञान के अगृहीत रहने पर द्वितीय और प्रथम ज्ञान अगृहीत रहने से अर्थस्वरूप धर्मी का भी ग्रहण नहीं हो पायेगा।
चतुर्थज्ञानजनक शक्ति आत्मा से भिन्न यानी पृथक् है या अभिन्न है ? यदि अभिन्न मानेंगे तो 30 शक्तिक्षय से आत्मक्षय भी प्रसक्त होगा। भिन्न मानेंगे तो उस से ही ज्ञान की भी उत्पत्ति शक्य बन जाने से आत्मा का अस्तित्व निरर्थक बन जायेगा। यदि कहें कि - "भिन्न होने पर भी 'वह शक्ति
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