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________________ ८० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ न च ‘विदितोऽर्थः' इति ज्ञानविशेषणस्यार्थस्य प्रतिपत्तेः “अगृहीतविशेषणा च विशेष्ये बुद्धिर्नोपजायत" [ ] इति विशेषणग्राहिज्ञानं द्वितीयं परिकल्प्यते । न च विशेषणस्यापरविशेषणविशिष्टता प्रतीयते येन तृतीयादिज्ञानपरिकल्पना युक्तिसङ्गता भवेदिति वक्तव्यम्, विशेषणस्यैव तृतीयादिज्ञानपरिकल्पनामन्तरेण ग्रहणाऽसम्भवादित्युक्तेः, स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगम एव ज्ञानविशेषणविशिष्टार्थप्रतिपत्तिः संभविनी अन्यथा 5 तदयोगादनवस्थाऽनिवृत्तेः। न च विषयान्तरसञ्चारादनवस्थानिवृत्तिः, यतो धर्मिज्ञानविषयात् साधनादि विषयान्तरम् तत्र ज्ञानस्योत्पत्तिर्विषयान्तरसञ्चारः, न चापरापरज्ञानग्राहिज्ञानसन्तत्युत्पत्ताववश्यंभाविबाह्यसाधनादिविषयसन्निधानम् येन तत्र ज्ञानस्य सञ्चारो भवेत् । सन्निधानेऽपि ‘अन्तरङ्ग-बहिरङ्गयोरन्तरङ्गस्यैव पंचम ज्ञान से जब तक ग्रहण नहीं मानेंगे तब तक पूर्वोक्तन्यायानुसार द्वितीय ज्ञान से प्रथम ज्ञान का भी ग्रहण शक्य न होने से वह असिद्ध ही बना रहेगा। यदि कहा जाय कि स्वयं अगृहीत तीसरे 10 ज्ञान से द्वितीय ज्ञान का ग्रहण शक्य है, तो स्वयं अगृहीत द्वितीय ज्ञान से पहले का और स्वयं अगृहीत प्रथम ज्ञान से अर्थ का ग्रहण भी शक्य होने से, प्रथमज्ञानग्राहक अनुव्यवसाय की कल्पना भी बेकार है। * तृतीयादिज्ञानकल्पना का बचाव निरर्थक * यदि कहा जाय - “अर्थ ज्ञात हुआ' इस प्रकार का जो अर्थसंवेदन होता है उस में विषयतासम्बन्ध 15 से ज्ञान अर्थ के विशेषण के रूप में संविदित होता है, विशेष्यरूप में अर्थ का भान होता है। यह प्रसिद्ध तथ्य है कि विशेषण अज्ञात रहने पर कोई पदार्थ उस के विशेष्यरूप में भासित नहीं होता। इस परमार्थ के फलस्वरूप यह मानना होगा कि विशेषणभूत ज्ञान का अन्य ज्ञान से ग्रहण होता है। इस द्वितीय ज्ञान को मानने पर तृतीय ज्ञान को उस के ग्राहकरूप में मानने की आपत्ति इस लिये निरवकाश है कि द्वितीय ज्ञान से विशिष्ट हो कर कोई नया विशेष्य प्रतीत नहीं होता, अगर 20 वह भी किसी नये ज्ञानरूप विशेषण से विशिष्ट हो कर प्रतीत होता तब तो तीसरे ज्ञान की कल्पना करनी पडती।” - ऐसा कहना गलत है क्योंकि विशेषणग्राहक दूसरा ज्ञान भी जब तक तीसरे ज्ञान से ज्ञात नहीं रहेगा तब तक वह अज्ञात रहने से विशेषणरूप से प्रथमज्ञान को कैसे भासित कर सकेगा ? इस ढंग से होनेवाली अनवस्था को रोकने के लिये ज्ञान को स्वसंविदित स्वीकारना होगा, तभी ज्ञानात्मक 25 विशेषण से विशिष्ट अर्थ का ग्रहण सम्भव हो सकेगा। स्वसंवेदन न मानने पर तो, परतः प्रकाश मानने पर अन्य अन्य ज्ञान की आवश्यकता के कारण अनवस्था तदवस्थ रहेगी। विषयान्तर संचार से तृतीयादिज्ञान का बाध अशक्य पूर्वपक्षी :- दूसरे ज्ञान से प्रथम ज्ञान गृहीत हो जाने पर नये नये विषयों में ज्ञान का सञ्चार होते रहने से, तीसरे-चौथे ज्ञान का उत्थान ही नहीं होगा, अपने आप अनवस्था टल जायेगी। 30 उत्तरपक्षी :- नहीं, विषयान्तरसंचार का मतलब यह है कि विवादास्पद ज्ञान (यानी धर्मिज्ञान) __ होने के बाद उस के सीलसीले में उस के साधक साधनादि ही विषयान्तर है जिस का अन्वेषण उत्थित होगा - यही विषयान्तर संचार संभवित है न कि अन्य किसी बाह्यविषय में संचार। ऐसा नियम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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