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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ न च स्वसंविदितज्ञानवादेऽपि स्वसंविदितत्वाऽविशेषाद् देवदत्तज्ञानं यज्ञदत्तज्ञानं प्रसज्येत, यज्ञदत्तज्ञानस्य देवदत्ताऽसंविदितत्वात्, स्वज्ञानस्य कथंचित् स्वात्मना तादात्म्यात् तस्यैव तद्रूपतया परिणतेरिति प्रसाधितत्वात् । 'ज्ञानान्तरेण तस्य संवेदनात् नाऽगृहीतत्वमिति चेत् ? न तस्यापि ज्ञानान्तरेण ग्रहणेऽनवस्थाप्रसक्तेः, अग्रहणेऽगृहीतवेदनेन गृहीतस्य द्वितीयज्ञानस्याऽगृहीतरूपत्वान्न तेन प्रथमग्रहणमिति तदवस्था धर्म्यसिद्धिः। • तेन “ घटादिज्ञानस्य धर्मिणः द्वितीयेन, तस्यापि तृतीयेन ग्रहणादर्थसिद्धेर्नापरज्ञानकल्पनमिति नानवस्था " 5 - इति यदुक्तम् तदप्यसङ्गतम् तृतीयादेर्ज्ञानस्याऽग्रहणे प्रथमस्याप्यसिद्धेरुक्तन्यायात् । यदि पुनस्तृतीयज्ञानेन स्वयमसिद्धेनापि द्वितीयं गृह्यते द्वितीयेन तथाभूतेनैव प्रथमम् तेनापि तथाभूतेनैवाऽर्थे गृहीष्यते इति द्वितीयज्ञानपरिकल्पनमपि व्यर्थमासज्येत । - होता है उस आत्मा से उस ज्ञान की उत्पत्ति मानी जाती है। तात्पर्य, समवाय से तद्वृत्तित्व को ही तदुत्पत्तिरूप माना जाता है। जब तक समवाय असिद्ध है तब तक तदुत्पत्ति' भी असिद्ध होने 10 से 'यह ज्ञान इसी आत्मा का' ऐसा बोलेंगे कैसे ? दूसरा दोष यह होगा कि ईश्वर का नित्य ज्ञान ईश्वरोत्पादित न होने से 'यह ईश्वर का ज्ञान' ऐसा भी बोल नहीं सकेंगे। * स्वसंविदितज्ञानपक्ष में साधारण्यापत्ति का निराकरण * पूर्वपक्षी :- आप के स्वप्रकाशज्ञानवाद में भी देवदत्त का ज्ञान ही यज्ञदत्त का भी कहा ही जायेगा क्योंकि ज्ञान स्वसंविदित है वह देवदत्त या यज्ञदत्त में पक्षपात नहीं करेगा । उत्तरपक्ष :- नहीं, यज्ञदत्त का स्वसंविदित ज्ञान देवदत्त के लिये स्वसंविदित नहीं है फिर कैसे यज्ञदत्त का ज्ञान देवदत्त का कहा जायेगा ? वह ज्ञान यज्ञदत्त का ही होने में तादात्म्य ही नियन्त्रक है, यज्ञदत्तीय ज्ञान का यज्ञदत्त की आत्मा के साथ ही तादात्म्य है क्योंकि यज्ञदत्त की आत्मा ही अपने ज्ञान के रूप में परिणत बनती है, पहले यह तथ्य सिद्ध हो चुका है । पूर्वपक्षी :- हमारे पक्ष में ज्ञान स्वसंविदित न होने पर भी सर्वथा अविदित अगृहीत नहीं 20 होता किन्तु उत्तरकालीन अन्य ज्ञान से प्रथमज्ञान गृहीत होता है अत एव उस से अर्थग्रहण संगत होगा । Jain Educationa International — 4 — ७९ उत्तरपक्षी :- बोलना मत, वह दूसरा ज्ञान तीसरे ज्ञान से, तीसरा चौथे ज्ञान से... इस तरह अनवस्था प्रसक्त होगी उस का क्या ? यदि तीसरा ज्ञान गृहीत नहीं होगा तो उस से ग्रहण किया गया दूसरा ज्ञान भी अगृहीत तुल्य ही बना रहेगा, अतः उस से प्रथमज्ञान ( घटादिज्ञान) भी अगृहीत 25 यानी असिद्ध ही रह गया, अतः उस में स्वसंविदितत्व निषेध के लिये किये गये ज्ञेयत्वहेतुक अनुमान में धर्मी (घटादिज्ञान) की असिद्धि वज्रलेपवत् रही । * अनुव्यवसाय की कल्पना का निरसन अत एव आपने जो पहले बयान किया था कि “ घटादिज्ञानरूपी धर्मी का द्वितीय ज्ञान से और द्वितीय ज्ञान का ग्रहण तीसरे ज्ञान से हो जाने पर, गृहीत द्वितीय ज्ञान से गृहीत प्रथम ज्ञान 30 रूपी धर्मी से, घटादि अर्थ की सिद्धि निष्पन्न है, अब चौथे, पाँचवे ... ज्ञान की कल्पना नहीं करने से अनवस्था दोष नहीं होगा । " वह संगत नहीं है, चूँकि तीसरे ज्ञान का चतुर्थज्ञान से, उस का For Personal and Private Use Only = 15 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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