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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
अथापि स्यात्– यदि भिन्नेन ज्ञानेन नीलादेर्ग्रहणमुपपत्तिमद् भवेत् तदा हेतुरसिद्धः स्यात्, न चैवम् । तथाहि - न भिन्नकालस्यार्थस्य तेन ग्रहणं संभवति नापि समानकालस्य, तथा न निर्व्यापारेण, नापि भिन्नाभिन्नव्यापारवता, तथा न परोक्षेण, नापि स्वसंविद्रूपं बिभ्रता, नापि ज्ञानान्तरवेद्येनेति प्रतिपादितं सौगतैरिति न स्वतोऽवभासलक्षणो हेतुरसिद्धः । असदेतत्
एवमभ्युपगच्छतः सौगतस्यानुमानोच्छेदप्रसक्तेः । तथाहि - ' यदवभासते तज्ज्ञानं सुखादिवत् तथा च नीलादिकम्' इत्यनुमानमेतत् । तच्च त्रिरूपलिङ्गप्रभवम् 'त्रिरूपाल्लिङ्गादर्थदृग्’ ] इति वचनात् ।
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सिद्ध नहीं है मतलब कि नीलादि स्वतो अवभासित नहीं होते ।
** भावधर्म का स्वीकार-भाव का अस्वीकार भ्रान्तिमूलक क्यों नहीं ? * बौद्ध :- भ्रान्ति पुरुषधर्म है, अनेक लोगों को कुछ न कुछ भ्रान्ति होती है। अतः जिस को 10 नीलादि में स्वतोऽवभास मान्य होने पर भी भ्रान्ति के कारण नीलादि में ज्ञानरूपता स्वीकृत नहीं है उस के प्रति ज्ञानरूपता सिद्ध की जाती है। अब हेतु असिद्ध नहीं होगा ।
जैन :- तो यह भी सम्भव है कि भ्रान्ति के कारण ही कोई भावधर्म का स्वीकार करने पर भी भाव का स्वीकार न करे। जब यह भी संभव है तब बौद्ध धर्मकीर्त्ति ने 'नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति' (= भाव के असिद्ध रहने पर कोई भावधर्म नहीं बन सकता ) इस प्रमाणवार्त्तिक कारिका की व्याख्या 15 करते हुए ऐसा क्यों कहा है कि 'भावधर्मात्मक हेतु को मानने वाला कौन भाव को नहीं मानेगा?' ( जब कि भ्रान्ति से वैसा भी संभव हो सकता है ।)
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बौद्ध :- हेतु असिद्ध तब होता यदि नीलादिभिन्न ज्ञान से नीलादि का ग्रहण संगत होता, ऐसा तो है नहीं। कैसे, यह देखिये प्रत्यक्ष ज्ञान अपने से असमानकालीन अर्थ का वेदन करे यह सम्भव
नहीं है । समानकालीन अर्थ को भी ग्रहण करे यह सम्भव नहीं, क्योंकि तब अर्थ ज्ञान का ग्रहण 20 क्यों न करे यह प्रश्न ऊठेगा । ऐसा नहीं है कि ज्ञान व्यापार के विना ही असमानकालीन या समानकालीन अर्थ को ग्रहण कर सके । व्यापार के विना ज्ञान पंगु बना रहेगा। व्यापार के द्वारा अर्थग्रहण करने वाला ज्ञान व्यापार से यदि भिन्न होगा, तो उस व्यापार से व्यापृत होने के लिये नये व्यापार की, उस के लिये और नये व्यापार की अनवस्था खड़ी होगी । यदि वह व्यापार ज्ञान से अभिन्न होगा तो ज्ञान ही अकेला रह गया, अकेले ज्ञान से तो असमान - समानकालीन अर्थ 25 का ग्रहण शक्य नहीं । परोक्षज्ञान से भी भिन्न अर्थ का ग्रहण शक्य नहीं । स्वसंविदित या ज्ञानान्तर संवेध किसी भी प्रकार के ज्ञान से भिन्न अर्थ का ग्रहण शक्य नहीं है । ( समान - असमानकाल इत्यादि विकल्पों के न घटने से ।) बौद्धों का इसलिये यह कहना है कि 'जो अवभासित होता है वह ज्ञानात्मक है' यहाँ 'स्वतो अवभासित होना' यह हेतु असिद्ध नहीं है।
** बौद्धमत में सर्व अनुमान उच्छेद की आपत्ति *
कथन गलत है। ऐसा मानने पर तो बौद्धमत से अनुमान का ही उच्छेद हो बौद्ध का अनुमान है 'जो अवभासित होता है वह सुखादि की तरह ज्ञानात्मक
बौद्ध का यह जायेगा | देखिये
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. अनुमानं द्विधा स्वार्थं त्रिरूपाल्लिङ्गतोऽर्थदृक् ।। (प्र० समु० द्वि० परि० श्लो० १) ।
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