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________________ खण्ड - ३, गाथा - ५ ३१ तदप्युक्तोत्तरमेव । यतः कार्यान्तरासाहित्यं कैवल्यमङ्कुरादेः क्रमः, यौगपद्यमप्यपरैः बीजादिकार्यैस्तस्य साहित्याम्, प्रकारान्तरं च तदुभयावस्थाभावेऽप्यंकुरादेरन्यथाभवनमध्यक्ष ( ? क्षं) तस्यान्यसहितश्च ( ? स्य) केवलस्य चाङ्कुरादिस्वभावस्य भावस्य भाव उपलभ्यमान उपलब्धिलक्षणप्राप्त एव स्वभावः क्रम- यौगपद्यस्वभावबहिर्भूतो नोपलभ्यते उपलभ्यवस्तुनोऽपरसाहित्ये कैवल्ये वा अपनीते तद्विविक्तदेशाद्य (? ध्य) वसायिनोऽध्यक्षस्यानुभवादभावसिद्धेः । अंकुरादेस्तु स्य ( ? ) कार्यस्य क्रमाक्रमभावव्यतिरेकेणाभावेऽन्यदाभावो न क्षतिमावहति । तस्मात् प्रत्यक्षत एव प्रकारान्तराभावसिद्धि: (द्धेः) क्रमयोगपद्ययोगेन कथं न सामर्थ्यस्य व्याप्तिर्भवेत् ? अत एव न्यायात् देश-कालविप्रकर्षिणो भावास्तथाविधं कार्यं ये विदधति क्रमेतराभ्यामन्यथा न ते कर्तुमर्हन्ति, अन्यथा तस्यैवासम्भवात् । तथाहि - यद्यपि देशादिविप्रकृष्टता तेषां तथापि कार्यस्य भावो दृष्टकार्यधर्मव्यतिरेकेण न सम्भवति कार्यमात्रस्य विशेषाभावात् । कार्यता हि 'कस्यचिद् भावे भवनम्' तच्च अन्यसहितस्य केवलस्य 10 का सर्वथा निषेध शक्य नहीं, सीर्फ किसी देश-काल में ही उस का निषेध शक्य है। दूसरे में, प्रकारान्तर स्वभावतः विप्रकृष्ट होने के कारण उस के अभाव का निश्चय तो शक्य ही नहीं, फिर प्रत्यक्ष से प्रकारान्तर के अभाव कि सिद्धि कैसे शक्य है ?” इस का उत्तर दिया जा चुका है। देखिये - अंकुरादि से संलग्न जो क्रम है वह है क्या ? 'अन्य कार्य वैकल्य स्वरूप' कैवल्य ( = एकाकिता)। प्रत्येक क्षण उत्तरोत्तर इस प्रकार की होती है । यौगपद्य क्या है ? अन्य अन्य बीजादि कार्यों के साथ अंकुर का साकल्य क्या कहीं 15 किसी को ऐसा प्रत्यक्ष होता है कि क्रम-यौगपद्य उभयावस्था से मुक्त अंकुरादि का ( अन्यथा = ) तीसरे किसी प्रकार का ( भवन = ) परिणमन हो रहा हो ? जो भी अंकुरादिस्वभावाश्लिष्ट भाव उपलब्ध होता है वह कैवल्य या अन्यसाकल्य से गर्भित ही उपलब्ध होता है। यानी वह अन्यतररूप से उपलब्धिलक्षण प्राप्त ही है । उस से विपरीत, क्रम-यौगपद्यस्वभावबहिष्कृत कोई अंकुरादि उपलब्ध ही नहीं । जब उपलब्धिलक्षण प्राप्त वस्तु कैवल्य (= क्रम) या अन्य साकल्य ( = यौगपद्य) से अनाश्लिष्ट रहेगी तब तो तथाविध वस्तु 20 विकल सीर्फ भूतलादि देश-कालनिर्भासि प्रत्यक्ष ही अनुभवारूढ होता है जिस से सहजतया तृतीयप्रकार का अभाव निर्बाध सिद्ध होगा । [ परोक्ष पदार्थों के लिये भी क्रम-यौगपद्य का निर्णय सरल ] क्रमाक्रम भाव के विना अंकुरादि कार्य जब हो नहीं सकता तब अन्यदा ( ? था ) भाव कुछ भी बिगाड नहीं सकता। अतः प्रत्यक्ष से ही प्रकारान्तर का अभाव सिद्ध होने पर कैसे कहते हैं कि क्रम- यौगपद्य 25 के साथ सामर्थ्य की व्याप्ति नहीं है ? इसी न्याय से यह निष्कर्षफलित होता है कि देश - काल से विप्रकृष्ट ( = दूरवर्ती) जितने भी भाव अपने कार्य का निर्माण करते हैं वे सब क्रमशः या युगपद् ही कर सकते हैं, अन्य किसी प्रकार से कार्य करने की उन में कोई क्षमता नहीं है । अन्यप्रकार से वे अगर कार्य करने जायेंगे तो कोई कार्य न कर सकने से अर्थक्रिया के विरह में अपने अस्तित्व को ही गँवा देंगे। कैसे यह देख लो हालाँकि वे देश-काल विप्रकृष्ट (प्रत्यक्ष अगोचर ) हैं फिर भी यह सोच सकते हैं कि प्रत्यक्षदृष्ट 30 जो कार्यशैली है उस को छोड़ कर कोई भी कार्य निर्मित होना असम्भव है, क्योंकि दृष्ट और अदृष्ट में ऐसा कोई अन्तर (वैजात्य) नहीं है जिस से यह कल्पना की जा सके कि अदृष्ट कार्य दृष्ट कार्य की मर्यादाओं - Jain Educationa International 5 For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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