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________________ ३२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ वा, नान्यथा – इत्यत्र प्रत्यक्षाऽनुपलम्भतः सिद्धम् । यथा च प्रत्यक्षानुपलम्भ(त) स्तद(द्)भावभावित्वसिद्धेः कार्यतायामंकुरादेः, सर्वत्र तथैव तल्लक्षणव्यवस्थाविशेषाभावात्; तथा कार्यस्य भावोऽपि प्रकारद्वयेन सर्वत्र, नान्यथा-विशेषाभावाद् भवनमात्रस्य-इत्यनुपलब्धिलक्षणप्राप्तानामपि क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियासामर्थ्यस्य व्याप्तिः। अनुमानतोऽपि सर्वत्र प्रकारान्तराभावः सिध्यत्येव । तथाहि- अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधेनापरविधानात् तस्याऽपि प्रतिषेधे विधि-प्रतिषेधयोरेकत्र विरोधादुभयनिषेधात्मनः प्रकारान्तरस्य कुतः सम्भवः ? प्रयोगश्चात्र- यत्र यत्प्रकारव्यवच्छेदेन तदितरैकप्रकारव्यवस्थापनम् न तत्र प्रकारान्तरसम्भवः। तद्यथानीलप्रकारव्यवच्छेदेनानीलप्रकारव्यवस्थायां पीते। अस्ति च क्रमाऽक्रमयोरन्यतरप्रकारव्यवच्छेदेन तदितर प्रकारव्यवस्थापनम् व्यवच्छिद्यमानप्रकारविषयीकृते सर्वत्र कार्य-कारणरूपे भाव इति विरुद्धोपलब्धिः । 10 से अतीत होंगे। कार्यता का मतलब है किसी (कारणात्मक) भाव के होने पर उत्पन्न होना। या तो वह केवल ही (यानी क्रम से) उत्पन्न होगा, या फिर अन्य साकल्ययुक्त होगा, अन्यथा नहीं होगा - यह तथ्य तो प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ (यानी प्रसंग और विपर्यय) से सिद्ध होता है। जिस तरह, प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ से अंकुरादि कार्य मात्र को यह सिद्धान्त लागु होता है कि (कारण) भाव के होने पर ही कार्य हो सकता है, क्योंकि अनेकविध कार्यों के स्वरूप की व्यवस्था में कोई तफावत नहीं होता - तो इसी तरह कहीं 15 भी कार्य मात्र का भवन भी क्रम/यौगपद्य से ही होता है अन्य प्रकार से नहीं, क्योंकि उन के भवनमात्र में कोई तफावत नहीं है। फलित यह हुआ कि देश-काल विप्रकृष्ट अदृष्ट उपलब्धिलक्षणअप्राप्त कार्यों में भी क्रम/यौगपद्य के साथ ही अर्थक्रियासामर्थ्य की व्याप्ति होती है। [प्रकारान्तराभाव की अनमान से सिद्धि । क्रम-योगपद्य से अतिरिक्त प्रकार का अभाव अनुमान से भी अवश्य सिद्ध हो सकता है। प्रकाश और 20 अन्धकार की तरह अन्योन्य व्यवच्छेदस्वरूप भावों में से एक का निषेध करने पर दूसरे का विधान निर्बाध फलित होता है। वस्तु का निषेध कर के उसी वस्तु के विधि का भी निषेध करेंगे तो, एक ही वस्तु में विधि और प्रतिषेध उभय का विरोध स्पष्ट होने के कारण, उभय का निषेध यानी तृतीय प्रकार सम्भवित ही नहीं होगा। अनुमानप्रयोग को देख लो - जिस वस्तु में एक धर्मरूप प्रकार के निषेध के द्वारा तद्विरुद्ध अन्य प्रकार का प्रतिपादन किया जाता है वहाँ उन दो से अतिरिक्त प्रकार का सम्भव नहीं हो सकता। 25 उदा० पीतरूप में नीलात्मक एक प्रकार के निषेध के द्वारा अनील प्रकार का प्रतिपादन करने पर नील अनील से अतिरिक्त प्रकार बचता नहीं। प्रस्तुत में भी, क्रम-योगपद्य में से किसी एक का व्यवच्छेद पर दूसरे प्रकार की स्थापना, व्यवच्छेदविषयभूत प्रकार से सम्बन्ध न रखनेवाले सभी कार्यकारणरूप भाव में स्फट ही है। यहाँ विरुद्ध हेत की उपलब्धि (जैसे जल की उपलब्धि से अग्नि के अभाव की तरह) प्रकारान्तराभाव को सिद्ध करती है। व्यवच्छेदविषयीभूत प्रकार से अन्य प्रकार की स्थापना यही प्रकारान्तररूप 30 है, अथवा यह कहिये कि प्रकारान्तर का लक्षण है व्यवच्छिद्यमान प्रकार से बहिर्भूत भाव। यहाँ तथाभाव और अन्यथा भाव ‘परस्परपरिहारेण अवस्थान' स्वरूप विरोधग्रस्त है अतः एकप्रकार के निषेध से दूसरे प्रकार का विधान प्रसक्त होने पर तृतीय प्रकार का अभाव अनुमानसिद्ध है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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