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________________ ३५० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ तथाहि- यद् अवयवेन विशिष्टधर्मेण आदिश्यते तद् अस्ति च नास्ति च भवति । तथा, स्वद्रव्यक्षेत्रकाल-भावैर्विभक्तो घटः स्वद्रव्यादिरूपेणास्ति परद्रव्यादिरूपेण च स एव नास्ति। तथा च पुरुषादि वस्तु विवक्षितपर्यायेण बालादिना परिणतम् कुमारादिना चाऽपरिणतमित्यादिष्टम् इति योज्यम् । ।३७ ।। पूर्वभङ्गकप्रदर्शितन्यायेन पञ्चमभङ्गकप्रदर्शनायाह(मूलम्-) सब्भावे आइट्ठो देसो देसो य उभयहा जस्स। तं अत्थि अवत्तव्वं च होइ दविअं वियप्पवसा ।।३८ ।। सद्भावे = अस्तित्वे यस्य घटादेर्मिणो देशो धर्म आदिष्टो अवक्तव्यानुविद्धस्वभावे, अन्यथा तदसत्त्वात्। न ह्यपरधर्माप्रविभक्ततामन्तरेण विवक्षितधर्मास्तित्वमस्य सम्भवति खरविषाणादेरिव। तस्यै वापरो देश उभयथा अस्तित्व-नास्तित्वप्रकाराभ्यामेकदैव विवक्षितोऽस्तित्वानुविद्ध एवाऽवक्तव्यस्वभावः 10 अन्यथा तदसत्त्वप्रसक्तेः । न ह्यस्तित्वाभावे उभयाविभक्तता शशशृंगादेरिव तस्य सम्भविनी। प्रथम-तृतीयभङ्गव्युदासस्तथाविवक्षावशादत्र कृतो दृष्टव्यः । तत्र प्रथम-तृतीययोभंगकयोः परस्पराविशेषणभूतयोः प्रतिअस्ति और नास्ति इस प्रकार परिणत होता है। तदुपरांत, जब घट द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव (जैन दर्शन के पारिभाषिक तत्त्व) से विवक्षित किया जाय तब घट स्वद्रव्य = मिट्टी, स्वक्षेत्र = भूतलादि, स्वकाल = प्रातःकालादि, स्वभाव = वृत्ताकारादि रूपों से 'सत्' होता है किन्तु परद्रव्य = जलादि, परक्षेत्र 15 रज्जु आदि, परकाल = रात्रिकाल अथवा प्रलयकाळ, पर भाव = चतुष्कोणादि संस्थान आदि रूपों से जिज्ञासित होने पर वही घट 'नास्ति' बन जाता है। ऐसे ही घट की तरह पुरुषद्रव्य भी (३३ वी गाथा में जो कहा है तदनुसार) विवक्षित बालादि पर्याय से जब परिणत होता है तब कुमारादि भाव से वही पुरुष अपरिणत भी निर्दिष्ट किया जाता है - यह समझ लेना ।।३७।। [पंचम भंग अस्ति-अवक्तव्य का निदर्शन ] 20 अवतरणिका :- पूर्वभंगों का सयुक्तिक प्रदर्शन कर के अब वैसे ही सयुक्तिक पंचमभंग का प्रदर्शन किया जाता है गाथार्थ :- द्रव्य का एक अंश 'सत्' रूप से और दूसरा अंश एक ही सत्-असत् उभय रूप से निर्दिष्ट करना हो तब वह द्रव्य विकल्प (= जिज्ञासा या विवक्षा) के अनुसार स्याद् अस्ति - स्याद् अवक्तव्य (भंगप्रविष्ट) होता है।।३८।। 25 व्याख्यार्थ :- घटादि धर्मी को एक देश यानी एक धर्म सत्त्व से विवक्षित करें, और अन्य देश यानी एक साथ सत्त्वासत्त्व उभयविवक्षा से अवक्तव्य धर्मअनुरक्त स्वभाव से विवक्षित करे तब वह द्रव्य ‘स्याद् अस्ति स्याद् अवक्तव्य' भंग का आह्वान करता है। यदि विवक्षानुसार ऐसा (यानी सत्त्व को अवक्तव्य अनुगतस्वभाव युक्त) न माने तो द्रव्य सर्वथा असत् खपुष्पवत् हो जायेगा। किसी भी द्रव्य का कोई एक धर्म (सत्त्व), अन्य धर्मों से अविभक्तरूप से द्रव्य में रहना पसंद नहीं करेगा 30 तो उस विवक्षित धर्म का अस्तित्व ही गर्दभश्रृंग की तरह आपद्ग्रस्त बन जायेगा। सत्त्वरूप से विवक्षित एक द्रव्य में अन्य देश एक साथ अस्ति-नास्तिउभयप्रकार से विवक्षित किया जाय तो वह द्रव्य अस्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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