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________________ खण्ड-३, गाथा-३८ ३५१ पायेनाधिगन्तुमिष्टत्वात्, प्रतिपादकेनापि तथैव विवक्षितत्वात् अत्र तु तद्विपर्ययात् अनन्तधर्मात्मकस्य धर्मिण प्रतिपाद्यानुरोधेन तथाभूतधर्माक्रान्तत्वेन वक्तुमिष्टत्वात् तद् द्रव्यमस्ति च अवक्तव्यं च भवति तद्धर्मविकल्पनवशात् धर्मयोस्तथापरिणतयोस्तथाव्यपदेशे धर्म्यपि तद्द्वारेण तथैव व्यपदिश्यते ।।३८ ।। षष्ठभङ्गकं दर्शयितुमाह(मूलम्-) आइट्ठोऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स। तं णत्थि अवत्तव्वं च होइ दवियं वियप्पवसा।।३९ ।। यस्य वस्तुनो देशोऽसत्त्वे निश्चित: ‘असन्नेवायम्' इत्यवक्तव्यानुविद्धः अपरश्चासदनुविद्ध उभयथा 'सन्नसंश्च' इत्येवं युगपनिश्चितस्तदा तद् द्रव्यं नास्ति च अवक्तव्यं च भवति विकल्पवशात् = तद्व्यपदेश्यावयववशात् द्रव्यमपि तद्व्यपदेशमासादयति। केवलद्वितीय-तृतीय-भङ्गकव्युदासेन षष्ठभंग: प्रदर्शितः ।।३९ ।। सप्तमप्रदर्शनायाह 10 त्वधर्मानुविद्ध अवक्तव्यस्वभावयुक्त बन जायेगा। इस भंग का प्रथम और तृतीय भंग में अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ जैसे अस्तित्व और अवक्तव्यता में परस्पर अनुविद्धता है वैसी प्रथम-तृतीय भंग में नहीं है। वहाँ तो परस्पर अविशेषणभूत सत्त्व और अवक्तव्यत्व का प्रतिपादन अपेक्षित है, कारण-प्रतिपादक की विवक्षा भी तथाप्रकार की है। यहाँ ऐसा नहीं है। यहाँ तो अनन्तधर्मात्मक द्रव्य वस्तु धर्मी को वाच्यवस्तु के अनुरोध से अन्योन्यानुविद्ध धर्म संकलित स्वरूप से ही दिखाना अभीष्ट 15 है। इस ढंग के तत् तत् धर्म के विकल्पन = विवक्षा वश वह द्रव्य अस्ति और अवक्तव्य हो कर रहेगा। धर्म-धर्मी का अभेद कर के, अन्योन्यानुविद्ध स्वभावपरिणत धर्मों के द्वारा धर्मी(द्रव्य) भी अन्योन्यानुविद्ध स्वभाव परिणत स्वरूप से निर्दिष्ट किया गया है। मतलब, गाथा में द्रव्य यानी धर्मीप्रधान निर्देश है।।३८ ।। [ छटे भंग की निष्पत्ति एवं स्पष्टीकरण ] अवतरणिका :- छठे भंग का निदर्शन करते हैं : गाथार्थ :- जिस का अंश असत्त्व और अंश सत्त्वाऽसत्त्व उभय विवक्षित हो तब विकल्प (= विवक्षा) वश वह द्रव्य नास्ति और अवक्तव्य होता है।।३९ ।। व्याख्यार्थ :- जिस वस्तु का अंश असत्त्व रूप निश्चित किया, उदा. 'यह असत् ही है'; वह भी अवक्तव्यस्य अनुविद्ध; तथा अन्य अंश अवक्तव्य असदनुविद्ध हो कर ‘सद्-असत्' इस प्रकार एक साथ 25 निश्चित यानी विवक्षित हुआ, तब द्रव्य नास्ति और अवक्तव्य भंग विशिष्ट बनेगा। 'विकल्पवश' शब्द का यह भी सूचितार्थ है कि द्रव्य अपने धर्मरूप व्यपदेश्य के अनुरोध से नास्ति-अवक्तव्यव्यपदेश प्राप्य करता है। स्वतन्त्र द्वितीय-तृतीय भंग के व्यवच्छेदपूर्वक यह छट्ठा भंग प्रदर्थित किया गया है। मतलब, पंचम भंग में जो कहा है उस के अनुसार इस भंग का द्वितीय-तृतीय भंग में समावेश नहीं होता । ।३९ ।। [ सप्तम भंग का निष्पादन और स्पष्टता ] अवतरणिका :- सातवे भंग का प्रदर्शन करते कहते हैं - 7. 'न हि अपरमधर्म... इत्यादिभावना अत्रापि कार्या' - बृ० ल० टी० । सा च ३५१-८ मध्ये । 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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