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________________ खण्ड-३, गाथा-३७ ३४९ धर्मान्तरस्य चाऽनिषिद्धत्वात्। अतः ‘स्यादस्ति' इत्यादि प्रमाणम्, 'अस्त्येव' इत्यादि दुर्नय:, ‘अस्ति' इत्यादिकः सुनयो न तु संव्यवहाराङ्गम्, ‘स्यादस्त्येव' इत्यादिस्तु नय एव व्यवहारकारणं स्वपराव्यावृत्तवस्तुविषयप्रवर्तकवाक्यस्य व्यवहारकारणत्वाद् अन्यथा तदयोगात् ।।३६।। [ क्रमशः उत्तरभंगचतुष्कनिरूपणे गाथाचतुष्कम् ] एवं निरवयववाक्यस्वरूपं भङ्गकत्रयं प्रतिपाद्य सावयववाक्यरूपचतुर्थभङ्गकं प्रतिपादयितुमाह- 5 (मूलम्-) अह देसो सब्भावे देसोऽसब्भावपज्जवे णियओ। तं दवियमत्थि णत्थि य आएसविसेसियं जम्हा।।३७ ।। अथ इति यदा देशो वस्तुनोऽवयवः सद्भावेऽस्तित्वे नियतः ‘सन्नेवायम्' इत्येवं निश्चितः, अपरश्च देशोऽसद्भावपर्याये = नास्तित्वे एव नियतः - ‘असन्नेवायम्' इत्यवगतः अवयवेभ्योऽवयविनः कथंचिदभेदाद् अवयवधर्मेस्तस्यापि तथाव्यपदेशः यथा 'कुण्ठो देवदत्तः' इति। ततोऽवयवसत्त्वाभ्यामवयवी अपि 10 सदसन् सम्भवति। तत: तद् द्रव्यमस्ति च नास्ति चेति भवत्युभयप्रधानावयवभागेन विशेषितं यस्मात् । एक देश की विवक्षा प्रदर्शित करते हैं। निष्कर्ष :- स्याद् अस्ति अथवा स्याद् नास्ति इत्यादि प्रमाण है, 'अस्ति एव' यह दुर्नय है, सिर्फ 'अस्ति' यह सुनय है। यद्यपि प्रमाण या सुनय व्यवहारसाधक नहीं है, (व्यवहार में प्रचलित नहीं है या लोकव्यवहार में उपयोगी नहीं हैं,) स्याद अस्ति एव - ऐसा नय ही व्यवहार कारक होता है, क्योंकि यह नय वाक्य ‘स्यात् पद के द्वारा स्व या पर का 15 व्यवच्छेद नहीं (किन्तु संग्रह) करता हुआ विवक्षित वस्तु विषय' का (एव-पद से) उचित भारपूर्वक बोधन या प्रवर्तन करानेवाला होने से व्यवहार सम्पादक बनता आया है। उक्त प्रकार की विषयवस्तु का बोधन या प्रवर्तन न करे वह व्यवहारसम्पादक नहीं बनता।।३६।। [चौथे सावयव अस्ति-नास्ति भंग का विवेचन ] अवतरणिका :- आद्य तीन भंगों में अस्ति या नास्ति या अवक्तव्य इस प्रकार निरवयव वाक्य 20 होते हैं, उन का प्रतिपादन कर दिया। अब दो अवयवों वाले चतुर्थभङ्ग का प्रतिपादन करते हैं - गाथार्थ :- जब एक अंश सत्त्व में और अन्य अंश असत्त्वपर्याय में निर्दिष्ट हो तब वह द्रव्य यतः आदेश(= अंश)विशेषित है इस लिये अस्ति और नास्ति (हो जाता है।)।।३७।। व्याख्यार्थ :- अथ यानी जब, वस्तु का एक अवयव (= अंश) अस्तित्व से 'यह सत् ही है' इस प्रकार से नियत यानी निश्चित (= स्थापित) किया जाय, और अन्य देश (= अंश) असद्भाव- 25 पर्याय यानी नास्तित्व से 'यह असत् ही है' इस प्रकार नियत (= स्थापित) किया जाय; यह कैसे देखिये :- अवयव-अवयवी कथंचिद् अभिन्न होते हैं इस लिये देवदत्त के हस्तादिरूप अवयव कुण्ठ होने पर 'देवदत्त कुण्ठ है' ऐसा व्यवहार प्रचलित है। मतलब, अवयवभूत सत्त्व और असत्त्व के अभेद से द्रव्य भी सत्-असत् हो सकता है। अत एव वैसा द्रव्य, उक्त कारण से ‘अस्ति' और 'नास्ति' इस प्रकार उभय प्रधान अवयव अंशतः विशेषित बनता है। 30 स्पष्टता :- जो द्रव्य जिस जिस अवयव रूप विशिष्ट धर्म से विवक्षित किया जाता है वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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