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________________ खण्ड-३, गाथा-३६ 15 तथाभूतार्थप्रकाशनं तथाभूतेनैव शब्देन विधेयमिति नाऽसम्बद्धस्तत्र पटाद्यर्थप्रतिषेधः। अथवा 'सर्वं सर्वात्मकम्' इति सांख्यमतव्यवच्छेदार्थं तत्प्रतिषेधो विधीयते तत्र तस्य प्रतीत्यभावात् । __यद्वा, नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभिन्नेषु विधित्सिताऽविधित्सितप्रकारेण प्रथम-द्वितीयौ भंगो। तत्प्रकाराभ्यां युगपद् अवाच्यम्, तथाभिधेयपरिणामरहितत्वात् तस्य। यतो यदि अविधित्सितरूपेणापि घटः स्यात् प्रतिनियतनामादिभेदव्यवहाराभावप्रसक्तिः । तथा च विधित्सितस्यापि नात्मलाभः, इति सर्वाभाव एव भवेत्। 5 तथा, यदि विधित्सितप्रकारेणाप्यघट: स्यात् तदा तन्निबन्धनव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरेव । एकपक्षाभ्युपगमेऽपि तदितराभावे तस्याप्यभाव इति अवाच्यः ।। अथवा स्वीकृतप्रतिनियतप्रकारे तव नामादिके या संस्थानादि: तत्स्वरूपेण घट: इतरेण चाऽघटः अर्थों का कारक हेतु नहीं होता सिर्फ ज्ञापक हेतु होता है, अतः पटादि अर्थव्यावृत्त घट अर्थ का प्रकाशन भी पटादिव्यावृत्तिज्ञापक घटादि शब्द से ही शक्य बन सकता है, अत एव घटशब्द से घट 10 में घटत्वबोध के साथ पटादिअर्थ निषेध का बोध भी संगत ही है। ___अथवा, सांख्यदर्शन के विद्वान् जो मानते हैं कि पुरुषव्यतिरिक्त समस्तपदार्थ एक प्रकृति के ही विकाररूप होने से समस्त वस्तु सर्वात्मक (प्रकृतिरूप) हैं - इस मान्यता के निषेध के लिये, अर्थात् घटादि में प्रकृतिविधया पटादिरूपता का निषेध करने के लिये ‘घट' पद से घट में पटादि का असत्त्व दिखाना पडेगा, क्योंकि घटादि में कभी पटादि की अभिन्नतया प्रतीति नहीं होती। [निक्षेपों से प्रयुक्त आद्य तीन भंग - २] आद्य तीन भंगो के समर्थन का दूसरा प्रकार :- हर एक वस्तु नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव ऐसे चतुर्विध होती है, जिन्हें निक्षेप कहा जाता है (दे० सन्मति गाथा १-६ पृ. ३७९)। इन में से, जिस रूप से (उदा० नाम रूप से) वस्तु विवक्षित की जाय उस रूप से वह 'सत्' (प्रथमभंगप्रविष्ट) है, अन्य अविवक्षित (उदा० स्थापनादि) रूप से वह 'असत्' (द्वि० भंगपतित) है। उभयरूप से एक साथ विवक्षित 20 की जाय तो वह अवाच्य (तीसरा भंग) बन जायेगी क्योंकि वस्तु में, एक साथ उभयधर्मों का या तो प्राधान्येन या तो गौणरूप से वाच्य-परिणाम होता नहीं। कारण :- यदि अविवक्षित रूप से भी घट 'सत्' होगा तो घट में समस्त रूपों का प्रवेश होने से प्रतिनियत अमुक ही नामादि प्रकार से वस्तु के व्यवहार का लोप हो जायेगा। फलतः व्यवहार के बिना वस्तु में विवक्षित रूप से भी सत्त्व का लोप हो जाने पर सर्व प्रकार से वस्तु का अभाव प्रसक्त होगा। अतः अविवक्षित रूप से वस्तु 25 को ‘असत्' मानना अतिजरूरी है। तथा, विवक्षित रूप से वस्तु को 'सत्' मानना भी जरूरी है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे, घट को घट मान कर जितने व्यवहार किये जाते हैं उन सभी का लोप प्रसक्त होगा। जैसे मुहर की एक बाजु का निषेध करने पर दूसरी बाजू का भी लोप आ पडता है वैसे ही केवल सत् या असत् रूप का स्वीकार कर के अन्य रूप का अस्वीकार करेंगे तो उभय का अभाव प्रसक्त होने से. इस ढंग से भी वस्त अवाच्य बन जायेगी।। 30 [ नामादि घट के आकार से प्रयुक्त भंगत्रय - ३ ] ऐसे भी भंगत्रय हो सकते हैं – नामादि घट के प्रत्येक के अपने अपने पृथक् आकार हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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