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________________ ३३८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ पदं वाक्यम् वा लोकप्रसिद्धं तस्यापि परस्परापेक्षद्रव्यादिविषयतया तथाभूतार्थप्रतिपादकत्वाऽयोगात्। न च 'तौ सत्' [३-२-१२७ पाणिनि०] इति शतृशानयोरिव संकेतितैकपदवाच्यत्वम् विकल्पप्रभवशब्दवाच्यत्वप्रसक्तेः। विकल्पानां च युगपदप्रवृतेर्नेकदा तयोस्तद्वाच्यतासम्भवः । न च निजार्थान्तरैकान्ताभ्युपगमेऽप्यर्थस्य वाच्यता, तथाभूतस्य तस्याऽत्यन्ताऽसत्त्वात्- सर्वथा सत्त्वेऽन्यतोऽव्यावृत्तत्वात् महासामान्यवद् घटार्थत्वानुपपत्तेः । अर्थान्तरत्वे पररूपादिव स्वरूपादपि व्यावृत्तेः खरविषाणवदसत्त्वादवाच्यतैव । न च घटत्वे घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्ते विधिरूपे सिद्धेऽसम्बद्ध एव तत्र पटाद्यर्थप्रतिषेध इति वाच्यम्, पटादेस्तत्राभावाभावे घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य घटत्वस्यैवाऽसिद्धेः । शब्दानां चार्थज्ञापकत्वं न कारकत्वमिति ऐसा एकाकी पद या वाक्य लोग में सुविदित नहीं है जो एकसाथ अपेक्षित विषय का प्रतिपादक हो, क्योंकि जो भी होगा वह तो परस्पर की अपेक्षा से ही द्रव्यादि वस्तु का वाचक होगा। मतलब, 10 एकसाथ प्रधानतया सत्त्व-असत्त्व उभय धर्मों से अनुविद्ध एक वस्तु का प्रतिपादकत्व उस में या अन्य किसी में भी नहीं है - इस लिये तीसरे भंग में वस्तु अवाच्य है। [ संकेतित एक पद से भी वाच्यता का असंभव ] __ शंका :- 'तौ सत्' इस पाणिनि सूत्र (३-२-१२७) में शतृ और शान प्रत्ययों की 'सत्' संज्ञा की गयी है। यहाँ संकेतित एक 'सत्' पद के द्वारा एकसाथ दो शतृ-शान प्रत्ययों में समप्रधानभाव 15 से वाच्यत्व मानना पड़ेगा। उत्तर :- नहीं। संकेतकरण तो एक विकल्प है, यदि यहाँ आप कहते हैं ऐसा मान लेंगे तो सर्वत्र विकल्पजन्यशब्दवाच्यता प्रसक्त होगी। वस्तुतः विकल्प यानी संकेतों से जो अनेक अर्थों में एक शब्द की प्रवृत्ति होगी वह एक साथ अनेक का वाचक न हो कर क्रमशः ही अनेक अर्थों का वाचक होगा। न्याय तो यह है कि एक बार बोला गया एक शब्द एक बार ही अर्थबोधक होता है। यदि 20 स्व और (पर =) अर्थान्तर को एकान्ततः शब्दप्रयुक्त अर्थवाच्यता मानने जायेंगे तो यह सम्भव ही नहीं क्योंकि एकान्त सत् एकान्त असत् कोई वस्तु ही नहीं होती। वस्तु को एकान्त सत् मानने पर (यानी सर्वथा = सर्व रूपों से एकान्त सत् मानने पर) पटादिरूप से भी घट में व्यावृत्ति लुप्त हो जायेगी, जैसे महा सामान्य में किसी की व्यावृत्ति नहीं होती। फलतः घट पद में घटार्थत्व की उपपत्ति नहीं हो पायेगी। [एकान्त अर्थान्तररूपता से स्व-रूप से व्यावृत्ति की आपत्ति ] यदि घट को अर्थान्तर (= पर) रूप से एकान्ततः असत् मानेंगे तो स्व-रूप से भी गर्दभसींग की तरह व्यावृत्ति प्रसक्त होने से असत्त्वापत्ति के जरिये अवाच्यता ही फलित होगी। शंका :- ‘घट सत् है' इतना कह दिया तो घटशब्दप्रवृत्ति निमित्तभूत घटत्व जो विधिरूप है उस का भान यानी सिद्धि हो गयी, अब वहाँ पररूप पटादि अर्थ का निषेध असंगत ही कहा जायेगा, 30 उस की जरूर ही क्या है ? उत्तर :- ऐसा मत बोलिये, क्योंकि यदि घट में पटादिअभाव यानी पटादिप्रतिषेध नहीं करेंगे तो घटशब्द-प्रवृत्तिनिमित्तभूत घटत्व की स्वातन्त्र्येण सिद्धि ही रुक जायेगी। यह जान लो कि शब्द 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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