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________________ खण्ड-३, गाथा-३२ ३२५ एको व्युत्पन्नव्यवहारः तथाभूताय ‘गामभ्याज शुक्लां देवदत्त ! दण्डेन' इति यदा व्यपदिशति, द्वितीयस्तु तद्व्यपदेशानन्तरं तथैव विदधाति तदा अव्युत्पन्नसंकेत: शिशुः तं तथाकुर्वाणमुपलभ्यैवमवधारयति - ‘अनेन गोशब्दाद् गवार्थः प्रतिपन्नः अभ्याजादिशब्दादभ्याजिक्रियादिकः, अन्यथा कथमपरनिमित्ताभावेऽपि गोपिण्डानयनादिकं वाक्यश्रवणानन्तरं विदध्यात्' एवमपोद्धारकल्पनयाऽव्युत्पन्नानां संकेतग्रहणसम्भवाद् नानवस्थादोषः। न च प्रथमसंकेतविधायिनः स्वाभाविकसम्बन्धव्यतिरेकेण वाच्य-वाचकयोः कुतो वाच्य- 5 वाचकरूपावगतिरिति वक्तव्यम् - अनादित्वादस्य व्यवहारस्यापरापरसंकेतविधायिपूर्वकत्वेन निर्दोषत्वात् । न च वाच्य-वाचकसम्बन्धस्य पुरुषकृतत्वे शब्दवदर्थस्यापि वाचकत्वम्, अर्थवच्छब्दस्यापि वाच्यत्वं प्रसक्तमिति वक्तव्यम्, योग्यताऽनतिक्रमेण संकेतकरणात्।। न च स्वाभाविकसम्बन्धव्यतिरेकेण प्रतिनियतयोग्यताया अभावः; कृतकत्वेऽपि प्रतिनियतयोग्यतावतां भावानामुपलब्धेः । तथाहि- यत्र लोहत्वं छेदिकाशक्तिस्तत्रैव क्रियमाणा दृष्टा न जलादौ, यत्रैव तन्तुत्वमस्ति 10 की कृपा से बहुत सारे शब्दों का वाच्य-वाचकस्वभाव गृहीत हो सकता है। देखिये [वृद्धव्यवहार से वाच्य-वाचक अवधारण ] ___ एक व्युत्पन्न व्यवहारी दूसरे व्युत्पन्न पुरुष को आदेश करता है - 'हे देवदत्त ! श्वेत गौआ को दण्ड से हाजिर करो !' वह दूसरा व्युत्पन्न देवदत्त आदेश सुन कर उसी के अनुसार प्रवृत्ति करता है। अब वहाँ एक व्युत्पित्सु बाल खडा खडा सुनता है - देखता है और निश्चय करता है कि 15 'इस देवदत्त को गोशब्द प्रयोग से गौआ का भान हुआ और 'अभ्याज' आदि शब्द से अभ्याजि (हाजिर करना) आदि क्रियादि का भान किया। नहीं तो, कैसे अन्य (अंगुली निर्देशादि) किसी निमित्त के विरह में सिर्फ वाक्य सुन कर गो-पिण्ड के आनयनादि को वह कर देता ?!' इस ढंग से अपोद्धार यानी पृथक्करण की कल्पना से अव्युत्पन्न बालादि को संकेत-ग्रहण शक्य है, पुनः पुनः संकेत बोधन नहीं - अतः कोई अनवस्थादि दोष नहीं है। मतलब, स्वाभाविक सम्बन्ध बिनजरूरी है। 20 ऐसा मत कहना कि – 'सब से पहले जो संकेतज्ञान करेगा/करायेगा, उस को स्वाभाविक सम्बन्ध के बिना वाच्य एवं वाचक में क्रमशः वाच्यता और वाचकता का भान कैसे होगा ?' – निषेध का मूल यह है कि इस जहाँ में कोई ‘सब से पहला संकेतज्ञ' नहीं है। अनादिकालीन प्रवाह से यह व्यवहार चला आता है अतः नये नये संकेतविधायकों के जरिये यह व्यवहार नितान्त निर्दोष है। ऐसा कहना - ‘वाच्य-वाचक सम्बन्ध स्वाभाविक न हो कर पुरुषकृत माना जाय तो शब्द की 25 तरह अर्थ में वाचकत्व और अर्थ की तरह शब्द में वाच्यत्व का प्रसंजन आयेगा।' – निषेधार्ह है क्योंकि संकेतकारक व्युत्पन्न पुरुष संकेत की योग्यता जान कर योग्यता का उल्लंघन न हो इस ढंग से ही संकेत करेगा। [प्रतिनियत योग्यता के लिये स्वाभाविक सम्बन्ध निरुपयोगी । योग्यता का यह मतलब नहीं कि स्वाभाविक सम्बन्ध के बिना उस का अभाव हो। प्रयत्नजन्य 30 यानी कृतक होने पर भी पदार्थों में प्रतिनियत योग्यता हो सकती है। कैसे यह देखिये- जिस में लोहत्व होता है छेदनशक्ति वहाँ दिखती है, वह लोह में होती है जलादि में नहीं होती। ऐसे ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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