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________________ ३२४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ 5 स्वभावता व्यपगच्छति अनित्यताप्रसक्तिदोषापत्तेः, 'नित्याश्च' परैस्तेऽभ्युपगता इत्यभ्युपगमविरोधश्च । [वाच्य-वाचकसम्बन्धे नित्यत्वनिराकरणम् ] न च नित्यसम्बन्धवादिनस्तदपेक्षा वर्णा अर्थप्रत्यायकाः सम्भवन्ति, नित्यस्यानुपकारकत्वेनाऽपेक्षणीयत्वाऽयोगात्। न च नित्यः सम्बन्धः शब्दार्थयोः प्रमाणेनावसीयते, प्रत्यक्षेण तस्याऽननुभवात् । तदभावे नानुमानेनापि, तस्य तत्पूर्वकत्वाभ्युपगमात् । न च शब्दार्थयोः स्वाभाविकसम्बन्धमन्तरेण गो-शब्दश्रवणानन्तरं ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तेर्न भवेत्। अस्ति च सा इति शब्दस्य वाचिका शक्तिरवगम्यते इति वाच्यम्, अनवगतसम्बन्धस्यापि ततस्तदर्थप्रतिपत्तिप्रसक्तेः। न च संकेताभिव्यक्तः स्वाभाविकः सम्बन्धोऽर्थप्रतिपत्तिं जनयतीति नायं दोषः; संकेतादेवार्थप्रतिपत्तेः स्वाभाविकसम्बन्धपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः। तथाहि- संकेताद् व्युत्पाद्याः ‘अनेन शब्देनेत्थंभूतमर्थं व्यवहारिणः प्रतिपादयन्ति' इत्यवगत्य व्यवहारकाले पुनस्तथाभूतशब्द10 श्रवणात् संकेतस्मरणे तत्सदृशं तं चार्थं प्रतिपद्यन्ते न पुनः स्वाभाविकं सम्बन्धमवगत्य पुनस्तत्स्मरणे ऽर्थमवगच्छन्ति। न च वाच्य-वाचकसंकेतकरणे स्वाभाविकसम्बन्धमन्तरेणानवस्थाप्रसक्तिः, बुद्धव्यवहारात् प्रभूतशब्दानां वाच्यवाचकस्वरूपावधारणात्। तथाहिमें प्रसक्त होगा। उपरांत, मीमांसकमत में वर्णों को नित्य माना गया है अतः यदि अनित्यता मान ली जाय तो अपने सिद्धान्त से विरोध प्रसक्त होगा। 15 [ मीमांसकमान्य नित्य शब्दार्थसम्बन्ध की समालोचना ] ऐसा नहीं कि नित्यसम्बन्धवादी के मत में नित्यसम्बन्ध के सहयोग से ही वर्ण अर्थबोध करा सके। कारण :- नित्य पदार्थ उपकारक न बन सकने से उस की आशा-अपेक्षा-भरोसा किया नहीं जा सकता। शब्द और अर्थ का नित्य कोई सम्बन्ध प्रमाणसिद्ध नहीं है। प्रत्यक्ष प्रमाण से वैसा कोई सम्बन्ध दृष्टिगोचर नहीं होता। प्रत्यक्ष के बिना अनुमान से भी कोई सम्बन्ध ज्ञात नहीं हो सकता, क्योंकि 20 अनुमान तो प्रत्यक्षपूर्वक ही होता है। यदि कहा जाय - 'शब्द-अर्थ का स्वाभाविक सम्बन्ध न माने तो ‘गौ' शब्द को सुनने के बाद खूधादि उपांगवाले पिण्ड का बोध नहीं होगा। बोध तो वैसा होता है. इस से सिद्ध होता है शब्द में अर्थवाचक कोई शक्ति (यानि सम्बन्ध) है' - तो यह कथन निषेधार्ह है क्योंकि सम्बन्धज्ञानविहीन पुरुष को भी उस अज्ञात सम्बन्ध से अर्थबोध हो जाने की आपत्ति होगी। यदि कहें – 'स्वाभाविक सम्बन्ध भी जब संकेत के द्वारा अभिव्यक्त होगा तभी अर्थबोध करायेगा। अतः 25 सम्बन्धज्ञानविहीन पुरुष को अर्थबोध हो जाने की आपत्ति नहीं होगी।' - तो हम कहते हैं कि संकेत से ही अर्थबोध मान लो, फिजुल स्वाभाविकसम्बन्ध की कल्पना व्यर्थ है। सुनिये - (संकेत ग्रहण करानेवाले वृद्धज्ञाता को व्युत्पादक कहेंगे और संकेत ग्रहण करनेवाले को व्युत्पाद्य या जिज्ञासु या व्युत्पित्सु कहेंगे) व्युत्पित्सु लोग संकेतबल से 'इस शब्द से इस प्रकार के अर्थ को व्यवहारी जन बोधित करते हैं। इस प्रकार समझ लेने पर व्यवहार प्रयोजन काल में पुनः पुनः पूर्वसदृश अर्थ को जान लेते हैं। यहाँ ऐसा ॐ नहीं है कि पहले स्वाभाविक सम्बन्ध का वेदन करे, फिर संकेत को याद करे, बाद में अर्थ का वेदन करे। ऐसा कहना – ‘स्वाभाविक सम्बन्ध के बिना वाच्य-वाचक का संकेत हो जायेगा तो उस संकेत के लिये अन्य एक संकेत, उस के लिये अन्य ... अनवस्था प्रसक्त होगी' - निषेधार्ह है क्योंकि वृद्धज्ञानीयों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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